Book Title: Anusandhan 2013 03 SrNo 60
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क -- खण्ड १
महात्माने प्राथमिक जाणकारी पण नथी" एम कही ऊतारी पाडवा जेवू वलण आचार्यश्री अपनावे छे ते बाबत निराशाजनक छे. वस्तुतः मुनिश्रीनी सामान्य भूल तरफ ध्यान दोरी, मुख्य विषयनी चर्चामां पोता तरफथी स्पष्टीकरण आपवानी जरूर हती. मुनिश्रीए 'सप्तभङ्गीविंशिका' पुस्तक विशे जे अवलोकनो पोताना लेखमां कर्यां ते आचार्यश्रीने नथी गम्यां अने तेनो रोष तेमना शब्दोमां ऊतरी आव्यो छे – एम जणाया विना रहेतुं नथी.
आचार्यश्रीनो प्रतिभाव, 'सप्तभङ्गीविंशिका'- संस्कृत-गुजराती विवरण अने मुनिश्रीनो लेख - आ बधुं हुं ध्यानथी वांची गयो. वांच्या पछी मारो उपरोक्त अभिप्राय वधु दृढ थयो के आचार्यश्री चर्चा टाळवा माटे ज एक गौण भूल - भूल नहि पण सरतचूक ज-ने आगळ करी रह्या छे. मने लाग्यु के मुनिश्रीना श्रम-स्वाध्याय-सूक्ष्म बोधने अन्याय थाय छे. एक ऊगता अभ्यासशील मुनिना अध्ययन-परिशीलनने 'आत्मघाती' जेवा शब्दोथी नवाजवामां आवे, व्यक्तिगत टिप्पणी द्वारा खोटी छाप ऊभी करवानो प्रयत्न थाय ए दुःखद वात छे. आ सम्बन्धमां थोडं माएं अवलोकन-मारा विचारो रजू करुं छु, जे 'अनुसन्धान'मां प्रगट करवा विनंति छे.
___'सप्तभङ्गीविंशतिका' (स.वि.) एक सुन्दर, गम्भीर विषयनी अधुनातन, संस्कृत भाषानी नोंधपात्र रचना छे. सप्तभङ्गीनी विचारणा विस्तारथी एमां करवामां आवी छे. अर्थपर्यायथी व्यञ्जनपर्याय कई रीते जुदो पड़े छे ते वात स.वि.मां सारी रीते चर्चाई छे. 'द्रव्य-गुण-पर्याय रास'मां महोपाध्यायजीए व्यञ्जनपर्यायनी व्याख्या 'घटकुम्भादिपदवाच्यता' एवी आपी छे अने तेना बे ज भंग सर्जाय छे एम कर्तुं छे. स.विं.नी विवेचना आ एक ज व्याख्याने लइने चाले छे. महोपाध्यायजीए द्र.गु.प.रा.मां ज बीजी व्याख्या आपी छे – “जे जेहनो त्रिकालस्पर्शी पर्याय ते तेहनो व्यञ्जनपर्याय". रासमां ज अन्यत्र (क. १४/६) तेओ स्पष्ट कहे पण छे के "पुरुषशब्दवाच्य जे जन्मादिमरणकाल पर्यन्त एक अनुगत पर्याय ते पुरुषनो व्यञ्जनपर्याय." त्यां सन्मतितर्कनी साक्षी आपी छे.
स.वि.ना कर्ताने जे एक व्याख्या स्वीकार्य छे ते दृष्टिए तेमनुं विवरण थयुं होय ए स्वाभाविक छे. परन्तु दिवाकरजी अने उपाध्यायजीए अन्य
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