Book Title: Anusandhan 2013 03 SrNo 60
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 218
________________ १९८ अनुसन्धान-६० : विज्ञप्तिपत्र-विशेषाङ्क - खण्ड १ वसुदेवहिण्डी (छठी शती) का क्रम आता है । इसमें वसुदेव की देशभ्रमण की कथाएं वर्णित है। इन दोनों ग्रन्थों में अनेक अवान्तर कथाएँ भी वर्णित है । इसके पश्चात् आचार्य हरिभद्र के कथाग्रन्थो का क्रम आता है । इनमें धूर्ताख्यान और समराइच्चकहा प्रसिद्ध है । इसी प्रकार भद्रेश्वरसूरि की कहावली भी प्राकृत कथा साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है । ज्ञातव्य है कि जहाँ विमलसूरिका ‘पउमचरिय' पद्य में है, वहाँ संघदास गणिकृत वसुदेवहिण्डी और हरिभद्र का धूर्ताख्यान गद्य में है। नौवीं दशमी शती में रचित शीलांक ने 'चउप्पन्नमहापुरिसचरियं' भी प्राकृतभाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि की 'लीलावईकहा' भी प्राकृत भाषा में निबद्ध एक श्रेष्ठ रचना है । प्राकृत भाषा में निबद्ध अन्य चरित काव्यों में १०वीं शती का सुरसुंदरीचरियं, गरुडवहो, सेतुबंध, कंसवहो, चन्द्रप्रभ महत्तरकृत सिरिविजयचंदकेवलीचरियं (सं. १०२७), देवेन्द्रगणी कृत सुदंसणाचरियं, कुम्मापुत्तचरियं, जंबूसामीचरियं, महावीरचरियं (१२वी शती पूर्वार्ध), गुणपालमुनि कृत गद्यपद्य युक्त जंबुचरियं, नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडचरियं, सिरिपासनाहचरियं, लक्ष्मणगणि कृत सुपासनाहचरियं (सभी लगभग १२वीं शती) । इसी कालखण्ड में रामकथा सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी सृजित हुई थी यथा- सियाचरियं, रामलखनचरियं । इससे कुछ परवर्ती काल खण्ड की महेन्द्रसूरि (सन् ११३०) कृत नम्मयासुंदरी भी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसी क्रम में १७वी शती में भुवनतुंगसूरि ने कुमारपालचरियं की रचना की । इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में काव्य लिखने की यह परम्परा चौथी-पांचवीं शती से लेकर १७वीं शती एक जीवित रही है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में कालक्रम में महाराष्ट्री प्राकृत में तीर्थंकर चरित्रों पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये-यथा आदिनाहचरियं, सुमईनाहचरियं, वसुपुज्जचरियं, अनन्तनाहचरियं, संतिनाहचरिय, मुनिसुव्वयसामीचरियं, नेमिनाहचरियं, पासनाहचरियं, महावीरचरियं आदि । शौरसेनी प्राकृत भाषा में चरित्रग्रन्थों के लिखने की यह धारा दिगम्बर परम्परा में निरन्तर नहीं चली। दिगम्बर परम्परा में चरित्रग्रन्थ तो लिखे जाते रहे हैं, किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने या तो संस्कृत को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया या फिर अपभ्रंश भाषा को अपनाया । यद्यपि श्वेताम्बर आचार्यों ने परवर्ती काल में भी अपभ्रंश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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