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जान्युआरी - २०१३
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अन्य ग्रन्थ भी कम से कम वलभीवाचना अर्थात् ईसा की पांचवी शती के पूर्व के ही है। छेदसूत्रो में से कल्प, व्यवहार, दशा और निशीथ के उल्लेख तत्त्वार्थ में है । तत्त्वार्थ के प्राचीन होने में विशेष संदेह नहीं किया जा सकता है। इनमें साधु के वस्त्र, पात्र आदि के जो उल्लेख है, वे भी मथुरा की उपलब्ध पुरातत्त्वीय प्राचीन सामग्री से मेल खाते हैं । अतः वे भी कम से कम ईसा पूर्व या ईसा की प्रथम शती की कृतियाँ हैं । अन्त में दशवैकालिक
और उत्तराध्ययन की प्राचीनता भी निर्विवाद है । यद्यपि विद्वानों ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों को प्रक्षिप्त माना है, फिर भी ई.प. में उसकी उपस्थिति से इन्कार नहीं किया जा सकता है । दशवैकालिक का कुछ संक्षिप्त रूप तो आर्य शय्यम्भव की रचना है - इससे इन्कार नही किया जा सकता है। नन्दी और अनुयोग अधिक प्राचीन नहीं है। प्रकीर्णकों में ९ का उल्लेख स्वयं नन्दीसूत्र की आगमों की सूचि में है, अतः उनकी प्राचीनता भी असन्दिग्ध है । यद्यपि सारावली आदि कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना होने से १०वीं शती की रचनाएँ है । दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रन्थ
__यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगमों के विच्छेद की पक्षधर है, फिर भी उसकी यह मान्यता है कि दृष्टिवाद के अन्तर्गत रहे हुए पूर्वज्ञान के आधार पर कुछ आचार्यों ने आगमतुल्य ग्रन्थों की रचना की थी, जिन्हें दिगम्बर परम्परा आगम स्थानीय ग्रन्थ मानकर ही स्वीकार करती है । इनमें गुणधर कृत कसायपाहुड़ प्राचीनतम है । इसके बाद पुष्पदन्त और भूतबलि कृत छक्खण्डागम (षट्खण्डागम) का क्रम आता है । ज्ञातव्य है कि ये दोनों ग्रन्थ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं, और जैन कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित है । इन पर लगभग नवीं या दसवीं शती में धवल, जयधवल और महाधवल नाम से विस्तृत टीकाएँ लिखी गई । ये टीकाएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मिलती है। किन्तु इसके पूर्व इन पर चूर्णिसूत्रों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में वट्टकेर रचित मूलाचार और आर्य शिवभूति रचित भगवती-आराधना- ये दोनों प्राकृत ग्रन्थ भी आगम स्थानीय माने जाते है । मैं इन चारों ग्रन्थों को दिगम्बर परम्परा की ही यापनीय
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