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अनुसन्धान- ६० : विज्ञप्तिपत्र - विशेषाङ्क - खण्ड १
से यथावत् समानता रखते हैं । वहीं इसिभासियाइं याज्ञवल्क्य आदि २२ औपनिषदिक ऋषियों, अनेक बौद्धभिक्षुओं जैसे- सारिपुत्त, वज्जीयपुत्त और महाकाश्यप, आजीवक मंखलिगोशाल एवं अन्य विलुप्तप्रायः श्रमणधाराओं के ऋषियों के उपदेशों को प्राचीनतम प्राकृत भाषा में यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है । इसि भासियाई में ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित है । इनमें मात्र पार्श्व और वर्द्धमान (महावीर) को छोडकर शेष सभी औपनिषदिक, बौद्ध, आजीवक आदि अन्य श्रमणधाराओ से सम्बन्धित है । आश्चर्य यह है कि इनमें से अधिकांश को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है, जो जैन चिन्तकों की उदारदृष्टि का परिचायक है । ज्ञातव्य है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म के साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने के पूर्व की स्थिति का परिचायक है । ज्ञातव्य है कि जब जैनधर्म साम्प्रदायिक घेरे में आबद्ध होने लगा, तब यह प्राचीनतम प्राकृत का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी उपेक्षा का शिकार हुआ । इस की विषयवस्तु को दसवें अंगआगम से हटाकर प्रकीर्णक के रूप में डाला गया । सद्भाग्य यही है कि यह ग्रन्थ आज भी अपने वास्तविक स्वरूप में सुरक्षित
। प्राकृत और संस्कृत के विद्वानों से मेरी यही अपेक्षा है कि इस ग्रन्थ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उदार और उदात्त दृष्टि को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न करें । ज्ञातव्य है कि अन्य जैन आगमों में ऋषिभाषित के अनेक सन्दर्भ आज भी देखे जाते हैं ।
जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण और संख्या का प्रश्न :
जैन आगम साहित्य का वर्गीकरण दो रूपों में पाया जाता है - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । प्राचीन काल से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य - ऐसे दो विभागों में बाँटा जाता रहा है । अंगप्रविष्ट ग्रन्थो की संख्या १२ बारह मानी गयी है और इनके नामो को लेकर भी दोनों परम्पराओं में कोई मतभेद नहीं है । उन दोनों में बारह अंगो के निम्न नाम भी समान रूप से माने गये है १. आचाराङ्ग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृत्दशा, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र और १२. दृष्टिवाद । दोनो परम्पराएँ इस संबन्ध
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