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जान्युआरी - २०१३
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प्राकृत भाषा में रचित जैन साहित्य में प्राचीनता की अपेक्षा मुख्यतः उनका आगम साहित्य आता है । आगमों के अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के अनेक आगमतुल्य ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही रचित है । इसके अतिरिक्त जैन कर्मसाहित्य के विविध ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही मिलते हैं । इनके अतिरिक्त जैन साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा कथासाहित्य भी प्राकृत भाषा में विपुल रूप में पाया जाता है । इनके आचार व्यवहार खगोल-भूगोल और ज्योतिष सम्बन्धी कुछ ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही पाये जाते है । जहाँ तक जैनदर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रश्न है, सन्मतितर्क (सम्मइसुत्त), नवतत्त्वपयरण, पंचास्तिकाय जैसे कुछ ही ग्रन्थ प्राकृत में मिलते हैं । यद्यपि प्राकृत आगम साहित्य में भी जैनों का दार्शनिक चिन्तन पाया जाता है। इसी क्रम में जैनधर्म के ध्यान और योग सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्राकृत साहित्य बहुआयामी है । यदि कालक्रम की दृष्टि से इस पर विचार किया जाये, तो हमें ज्ञात होता है, कि जैनों का प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य ई.पू. पांचवी शती से लेकर ईसा की २०वीं शती तक लिखा जाता रहा है। इस प्रकार प्राकृत के जैन साहित्य का इतिहास लगभग ढाई सहस्राब्दी का इतिहास है। अतः यहा हमें इस सब पर क्रमिक दृष्टि से विचार करना होगा। जैन प्राकृत आगम साहित्य
प्राकत जैन साहित्य के इस सर्वेक्षण में प्राचीनता की दृष्टि से हमें सर्वप्रथम जैन आगम साहित्य पर विचार करना होगा। हमारी दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विलुप्त मानती है। यह भी सत्य और तथ्य है कि आगम साहित्य का विपुल अंश और उसके अनेक ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है। किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि आगम साहित्य पूर्णतः विलुप्त हो गया, उचित नहीं होगा । जैनधर्म की यापनीय एवं श्वेताम्बर शाखाएं आगमों का पूर्ण विलोप नहीं मानती है । आज भी आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित आदि ग्रन्थो में प्राचीन सामग्री अशंत: ही सही, किन्तु उपलब्ध है । आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र और ऋषिभाषित (इसिभासियाइं) इस बात के प्रमाण है कि प्राकृत जैन साहित्य औपनिषदिक काल में भी जीवन्त था। यहाँ तक कि आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अनेक सूत्र औपनिषदिक सूत्रों
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