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जान्युआरी २०१३
जैनों का प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण
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भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है । अति प्राचीनकाल से ही इसमें दो धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं - वेदिक और श्रमण । यद्यपि ये दो स्वतंत्र धाराएँ मूलतः मानव जीवन के दो पक्षों पर आधारित रही है । मानव जीवन स्वयं विरोधाभासपूर्ण है । वासना (जैविक पक्ष / शरीर) और विवेक (अध्यात्म) ये दोनों तत्त्व उसमें प्रारम्भ से ही समन्वित है । परम्परागत दृष्टि से इन्हें शरीर और आत्मा भी कह सकते है । जैसे ये दोनों पक्ष हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते रहते है, वैसे ही ये दोनों संस्कृतियाँ भी एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं । भाषा की दृष्टि से भी ये दोनों संस्कृतियाँ भी दो भिन्न भाषाओं के साहित्य से पृष्ट होती रही है । जहाँ वैदिक संस्कृति में संस्कृत की प्रधानता रही है, वही श्रमण संस्कृति में लोकभाषा या प्राकृत की प्रधानता रही है । आदि काल से ही वैदिक धारा की साहित्यिक गतिविधियाँ संस्कृतकेन्द्रित रही है । यद्यपि उसमें संस्कृत के तीन रूप पाये जाते है- १. छान्दस्, २. छान्दस् प्रभावित पाणिनीय संस्कृत और ३. साहित्यिक व्याकरण- परिशुद्ध संस्कृत । छान्दस्, जो मूलतः वेदों की भाषा है । ब्राह्मणग्रन्थो पर तो छान्दस् का ही अधिक प्रभाव रहा है, किन्तु आरण्यकों और उपनिषदों की भाषा छान्दस् प्रभावित पाणिनीय व्याकरण से परिमार्जित साहित्यिक संस्कृत रही है । पुराण आदि परवर्ती वैदिक परम्परा का साहित्यव्याकरण परिशुद्ध साहित्यिक संस्कृत में ही देखा जाता है । जबकि श्रमणधारा ने प्रारम्भ से ही लोकभाषा को अपनाया । देश और काल के अपेक्षा से इसके भी अनेक रूप पाये जाते हैं, यथा- मागधी, पाली, पैशाची, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश । बौद्धों का परम्परागत त्रिपिटक साहित्य पाली भाषा में है, जो मूलतः मागधी और अर्धमागधी के निकट है । वहीं जैन परम्परा का साहित्य मूलतः अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री और अपभ्रंश में पाया जाता है । यहां यह ज्ञातव्य है, कि जहाँ जैनधर्म की श्वेताम्बर शाखा का साहित्य अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में है, वहीं दिगम्बर एवं
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प्रो. सागरमल जैन, शाजापुर (म. प्र. )
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