Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त-57/1-2 आप इस भावना के द्वारा हठात् बलपूर्वक मेरे भीतर प्रविष्ट होते हुए मुझे आज भी जो एक चैतन्य रूप नहीं कर रहें हैं यह मेरा ही वह निजी जड़ता/अज्ञानता रूप गुण है। इसी प्रकार प्रत्येक स्तुति के अन्त में कामना करते हैं : ज्ञानाग्नौ पुटपाक एष घटतामत्यन्तमन्तर्बहिः, प्रारब्धोद्धतसंयमस्य सततं विष्वक् प्रदीप्तस्यमे। येनाशेषकषाय किट्टगलनस्पष्टीभववैभवाः, सम्यक् भान्त्यनुभूतिवर्मपतितः सर्वाः स्वभावश्रियः।। उत्कृष्ट संयम के पालक मेरी ज्ञानरूपी अग्नि में यह पुटपाक घटित हो जिससे समस्त कषायरूपी अन्तरंग मल के गलने से जिनका वैभव स्पष्ट हो रहा है ऐसी समस्त स्वभाव रूप लक्ष्मियाँ अनुभूति के मार्ग में पड़कर सम्यक् रूप से सुशोभित हों। इस स्तुतिकाव्य में विशेष रूप से कारण-कार्य सम्बन्ध, निश्चय-व्यवहार, क्रम-अक्रमवर्ती पर्याय, द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य व्यवस्था, शुद्धात्मानुभूति, अनेकान्त-स्याद्वाद आदि सभी सैद्धान्तिक विषयों की मीमांसा संक्षिप्त में सारगर्भित रूप से की गई है। समन्तभद्र स्वामी की स्तुतियों में दार्शनिकता विद्यमान है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत इस स्तुति में आध्यात्मिकता का वैभव है। इस काव्य की प्रथम स्तुति में चौबीस तीर्थङ्करों की वन्दना कर अन्त में लिखते हैं - ये भावयन्त्यविकलार्थवतीं जिनानां, नामावलीममृतचन्द्रचिदेकपीताम्। विश्वं पिबन्ति सकलं किल लीलयैव, पीयन्त एव न कदाचन ते परेण 7/25/लघुतत्त्व जो भव्य जीव अमृतचन्द्र सूरि के ज्ञान के द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थ से युक्त ऋषभादि तीर्थङ्करों की नामावली रूप इस स्तुति का चिन्तन करते हैं, वे निश्चय से अनायास ही समस्त विश्व को ग्रहण करते हैं-कर्मबन्ध से छूट जाते

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