Book Title: Anekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ अनेकान्त-57/1-2 है। स्तुतिकाव्यों में लघुतत्त्वस्फोट से श्रेष्ठ रचना देखने को नहीं मिलती। यद्यपि वाग्मी आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित स्तोत्र काव्य बहुत महत्त्वपूर्ण है तथापि अध्यात्म और सिद्धान्त से परिपूर्ण यह स्तुतिकाव्य अतुलनीय है। इसका प्रत्येक पद्य काव्य के समस्त गुणों से समलंकृत है। इसकी भाषा प्रौढ़ है। शैली गम्भीर है। छन्द, अलंकार, रस, गुण, रीति आदि जो काव्य के विशिष्ट तत्त्व होते हैं वे सभी इसमें विद्यमान हैं। समयसार-कलश के समान ही रचना है अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह रचना अमृतचन्द्र सूरि की ही है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि कृत ग्रन्थत्रय (समयसार, प्रवचन, पञ्चास्तिकाय) की टीकाएँ अपने आपमें परिपूर्ण हैं और पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय, तत्त्वार्थसार, अमृतकलश लोकोत्तर रचनाएँ हैं। फिर भी लघुता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा है नाना प्रकार के वर्णो से पद बन गये पदों से वाक्य बन गये और वाक्यों से यह ग्रन्थ बन गये इनमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इस शक्ति भणितकोश नामक लघुतत्त्वस्फोट में कहीं भी कर्तृत्व का अहंकार नहीं झलकता है। प्रत्येक स्तुति के बाद स्वयं को जिनत्व के प्रति समर्पण के साथ आत्मोपलब्धि की कामना की गई है। सर्वत्र सर्वज्ञ रूप की भावना की हैनितान्तमिद्धेन तपोविशेषितं तथा प्रभो मां ज्वलयस्व तेजसा। यथैव मां त्वां सकलं चराचरं प्रधयं विश्वं ज्वलयन ज्वालाभ्यहम्।। 25/5 हे प्रभो! मुझे तेज के द्वारा इस प्रकार प्रज्वलित करो जिस प्रकारे मैं अपने आपको और समस्त चराचर विश्व को प्रज्वलित करता हुआ सब और से प्रज्वलित होने लगूं। ' विनय भाव और सरलता तो आचार्य अमृतचन्द्र के रोम रोम में भरी हुई थी; यही कारण है कि छठवीं स्तुति के अन्त में शुद्ध चैतन्यत्व की प्राप्ति न होने में स्वयं की जड़ता/अज्ञानता को ही कारण मानते हुए कहते हैं प्रसह्य मां भावनायाऽनया भवान् विशन्नयः पिण्डमिवाग्निरुत्कटः। करोति नाद्यापि यदेकचिन्मयं गुणो निजोऽयं जडिमा ममैव सः।। 25/6 हे भगवन् ! लोहपिण्ड के भीतर प्रवेश करने वाली प्रचण्ड अग्नि के समानPage Navigation
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