Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 12
________________ ( ७ ) भारतीय विचारकों में मुख्यतः तीन प्रकार की विचार धाराएँ चलती रही हैं । १. नास्तिकवादी २. ईश्वरवादी ३. आत्मवादी नास्तिक, जिसे प्राचीन भाषा में चार्वाक कहते थे, वह सिर्फ शरीर को ही मानता है । उसका कहना है - " मनुष्य तो माटी पानी के संयोग से पैदा हुआ एक पुतला है, कुछ दिन अपना खेल दिखाकर वापस इसी मिट्टी पानी, आकाश में मिल जायेगा । इस शरीर से आगे कोई नई दुनियाँ नहीं है ।" इस प्रकार की नास्तिक विचारधारा में 'पुण्य-पाप' आत्मा-परमात्मा नाम की वस्तु ही नहीं है । कोई परम शक्ति या शास्वत तत्व ही नहीं हैं । खाना-पीना भोग-विलास, यही क्षुद्र लक्ष्य है इस जीवन का । दूसरी विचारधारा है - ईश्वरवादी ! उनका कहना है - मनुष्य केवल क्षणस्थायी माटी का पुतला नहीं है, इसके अन्दर अमरत्व का दीपक भी जल रहा है । जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद पुनः जन्म - यह संसारचक्र है और इस विराट संसारचक्र को चलाने वाली कोई परमशक्ति या सत्ता भी है, वह सत्ता भले ही हमें दृष्टिगोचर नहीं हो रही है, किन्तु वह दूध में चिकनाई की तरह कण-कण में व्याप्त है, और उस परम सत्ता के इशारे पर ही मनुष्य प्राणी कठपुतली की तरह नाच रहा है । वह परम सत्ता है 'ईश्वर' उसी की प्रेरणा से मनुष्य शुभ कार्य करता है, अशुभ कार्य भी उसी की प्रेरणा से करता है । तीसरी विचारधारा - आत्मवादी है । आत्मवादी का कहना है, मनुष्य स्वयं ही शक्ति का केन्द्र है । मनुष्य एक आत्मा है, और आत्मा ही परमात्म शक्ति का रूप है। जब तक कर्म का, वासना का, मोहमाया का आवरण या पर्दा पड़ा है तब तक वह परम ज्योति निखर नहीं पाई है, इसलिए यह मानव दीन-हीन असमर्थ दीखता है जब यह प्रयत्न करके, तपस्या और साधना करके उन आवरणों को हटा देगा तो उसी के भीतर से वह परम ज्योति फूट पड़ेगी । आत्मा ही परमात्मा के रूप में प्रकट हो जायेगा । बीज ही वृक्ष का विराट रूप धारण कर लेगा । बीज और वृक्ष दो अलग वस्तुएँ नहीं है, इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा की भी अलग सत्ता नहीं है । जीव ही शिव है, नर ही नारायण है । सिर्फ जरूरत है पुरुष को पुरुषार्थ करके, साधना करके 'परमेश्वर' स्वरूप प्रकट करने की । यह

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