Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 15
________________ सन्देह। रुद्रट ने निश्चयान्त जोड़कर उसके तीन भेद कर दिये। शोभाकर ने सादृश्येतर सम्बन्ध-निबन्धन में भी सन्देहालंकार को माना है। अलंकारदर्पण में इसके भेदों का कोई भी वर्णन नहीं है। सन्देह में दोनों पक्ष समान होते हैं जबकि उत्प्रेक्षा में उपमान पक्ष का मोह रहता है। विभावना विरोधमूलक अलंकार है। विभावना का अर्थ है- विशेष प्रकार की कल्पना जहाँ कारण के अभाव में कार्य के सद्भाव का वर्णन होता है। भामह ने इसकी स्थापना की और लगभग सभी आचार्यों ने उसे स्वीकार किया। दण्डी, वामन, रुद्रट आदि आचार्यों ने उसको और अधिक स्पष्ट किया। अप्पयदीक्षित का विशेष योगदान रहा उसके निरूपण में। उन्होंने उसके छ: भेद किये। अलंकारदर्पण में उसके कोई भेद नहीं मिलते। विभावना में कारण के बिना भी कार्योत्पत्ति वर्णित होती है, जबकि विशेषोक्ति में कारण के होते हुए भी कार्याभाव पाया जाता है। भावालंकार का उद्भावन आचार्य रुद्रट ने किया जिसका उल्लेख अलंकार सर्वस्वकार ने अपने ग्रन्थ के आदि में ही किया है। अलंकारदर्पणकार ने इसका कोई उदाहरण नहीं दिया। इस अलंकार की तुलना आनन्दवर्धन की वस्तुध्वनि से की जा सकती है। अन्यापदेश नामक अलंकार भी नया है। जहाँ अप्रस्तुत वाच्यार्थ के माध्यम से प्रस्तुत अर्थ की व्यंजना की जाती है वहाँ अन्यापदेश नामक अलंकार होता है। यह अर्थालंकार है। इसे भामह ने अप्रस्तुत प्रशंसा कहा है। प्राय: सभी आचार्यों ने इसे स्वीकार किया है। मम्मट ने इसके पांच भेद माने हैं। पाँचवें भेद की तुलना अन्यापदेश से की जा सकती है जहाँ तुल्य अप्रस्तुत के अभिधान द्वारा तुल्य प्रस्तुत व्यंग्य होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे अन्योक्ति कहा है। परिकर अर्थालंकार है जिसमें साभिप्राय या व्यंजक विशेषण शोभाकारक होकर विशेष्य का उपस्कारक होता है। इस अलंकार के उद्भावक रुद्रट हैं। इसके बाद भोज, मम्मट, रुय्यक, जयदेव, अप्ययदीक्षित, जगनाथ, विश्वेश्वर आदि आचार्यों ने इसको परिष्कृत किया है। परिकर और अन्य परिकर समानार्थक हैं। भोज ने इसे क्रिया, कारक सम्बन्धी, सादृश्य तथा दृष्टान्त के रूप में पांच प्रकार का माना है। वे एकावली को परिकर से भिन्न मानते हैं। मम्मट ने इसे परिष्कृत किया। अलंकारदर्पणकार मम्मट का अनुकरण करते दिखाई देते हैं। परिकरांकर अलंकार को विद्यानाथ दीक्षित ने ही माना है। इसमें कवि साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग करता है। अर्थान्तरान्यास सादृश्यमूलक या तर्कन्यायमूलक अलंकार है। सामान्य का विशेष के साथ अथवा सामान्य के साथ समर्थन न करना अर्थान्तरन्यास अलंकार है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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