Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 19
________________ भूमिका 'अलंकारदप्पण' प्राकृत भाषा में रचित अलंकारग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा में अलंकारशास्त्र का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय श्री अगरचन्द नाहटा को है। यह सर्वप्रथम मरुधर केसरी (मुनि श्री मिश्रीलाल जी महाराज) अभिनन्दन ग्रन्थ में वीर संवत् २४९५ (ई० सन् १९६८) में जोधपुर ब्यावर से छपा था। उसमें भंवरलाल नाहटा कृत हिन्दी अनुवाद भी था जिसमें संस्कृतच्छाया और हिन्दी अनुवाद प्रायः सन्तोषजनक नहीं थे। उन्हें हमने परिष्कृत किया है। श्री अगरचन्द नाहटा जी ने ग्रन्थ की भूमिका में जो महत्त्वपूर्ण सूचना दी है, उसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है ___ “प्राकृत भाषा का विपुल और विविधविषयक साहित्य प्रकाश में आया है, किन्तु कोई अलंकार ग्रन्थ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ। प्रस्तुत ग्रन्थ के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ का अस्तित्व भी विदित नहीं है। इस ग्रन्थ में अलंकार सम्बन्धी जो विवरण दिया गया है उससे इसका निर्माणकाल ८वीं से ११वीं शताब्दी का माना जा सकता है। रचना से कर्ता का पता नहीं चलता। प्राकृत भाषा की अलंकार सम्बन्धी यह एक ही रचना जैसलमेर के बड़े ज्ञानभण्डार में ताड़पत्रीय प्रति में प्राप्त हुई है। __ कवि ने प्रारम्भ में श्रुतदेवता को नमस्कार करके, काव्य में अलंकारों का औचित्य और उद्देश्य का वर्णन कर अलंकारशास्त्र रचने की प्रतिज्ञा की है। पश्चात् पद्य ५ से १० तक में वर्णित ४० अलंकारों के नाम कहे हैं। अनन्तर प्रत्येक अलंकार के लक्षण एवं उदाहरण दिये हैं। इनमें कतिपय अलंकारों के लक्षणमात्र हैं तो कतिपय के उदाहरण मात्र ही हैं। प्ररूपित अलंकारों की संख्या ४५ होती है जब कि ग्रन्थकार ने पद्य १० में ४० संख्या का उल्लेख किया है, अत: प्रेमातिशय से गुणोत्तरपर्यन्त ६ अलंकारों को एक प्रेमातिशय के अन्तर्गत स्वीकार कर लेने से ४० की संख्या का औचित्य ठहरता है। इस ग्रन्थ में निरूपित रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, उपमारूपक, उत्प्रेक्षायमक आदि अलंकार अन्य लक्षणग्रन्थों में प्राप्त नहीं हैं। ये अलंकार नवीन निर्मित हैं या किसी प्राचीन अलंकारशास्त्र का अनुसरण हैं, निश्चित नहीं कहा जा सकता। १३४ गाथाओं की यह रचना जैसलमेर भंडार की ताड़पत्रीय प्रति १३ पत्रों में लिखी हुई है, जो १३वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखी गई जान पड़ती है। इसके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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