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अलंकारदप्पण
एकक्कमा जहा (एकक्रमा यथा)
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एकक्कम सरिसाओ तुह प्रकृति विमले द्वे अपि विबुधजनयोः एकक्रमसदृशी तव कीर्ति: त्रिदशसरिच्च ।।
पअइ विमलाओ दोणि वि विबुहजणे (हिं) णिव्वुई कराओ अ कित्ती तिअस सरिआ अ ।। ३० ।। निर्वृतिकरे च ।
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प्रकृत्या निर्मल, देवताओं और विद्वज्जनों दोनों के लिये आनन्द देने वाली तुम्हारी कीर्ति और सुरसरित् (आकाश गंगा) एक समान है ।
एक्कक्कम या एक्केक्कम का अर्थ है 'परस्पर' (द्रष्टव्य पाइअसद्दमहण्णवो) ऐसा अर्थ करने पर भावार्थ यह होगा - तुम्हारी और देवताओं की कीर्ति परस्पर निर्वृति प्रदान करने वाली है । यहाँ पर राजा की कीर्ति उपमेय है और देवताओं की कीर्ति उपमान । दोनों में परस्पर निर्वृतिकरत्व होने से यह एकक्रमोपमालंकार है । निन्दाप्रशंसोपमा तथा तल्लिप्सोपमा का लक्षण
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णिंदाए सलहिज्जइ उवमेओ जत्थ सा पसंसत्ति ।
अणुहरइ अइसणं जा स च्चिअ होइ तल्लिच्छा ।। ३१ ।। निन्दया श्लाघ्यते उपमेयं यत्र सा प्रशंसेति । अनुहरत्यतिशयेन या सैव भवति तल्लिप्सा ।। ३१ ।।
जहाँ निन्दित उपमान से उपमेय की प्रशंसा की जाती है वह निन्दा प्रशंसोपमा है और जहाँ उपमेय उपमान का अतिशय अनुकरण करता है वह तल्लिप्सा उपमा है । णिंदापसंसा जहा ( निन्दाप्रशंसा यथा)
तुह संढस्स व णरवर भुज्जइ भिच्चेहिं पाअडा लच्छी । हिअआई काअरस्स व वअणिज्ज भएण ओसरइ ।। ३२ ।। तव षण्डस्येव नरवर भुज्यते भृत्यैः प्राकृता लक्ष्मीः । हृदयानि कातरस्येव वचनीयभयेन अपसरति ।। ३२।। हे राजन् ! नपुंसक की लक्ष्मी के समान आपकी नैसर्गिक लक्ष्मी का उपभोग भृत्यगण कर रहे हैं । कायर के हृदय के समान (लक्ष्मी) निन्दा के भय से दूर हटती है। यहाँ पर राजा की लक्ष्मी का नपुंसक की लक्ष्मी से सादृश्य दिखाने के कारण निन्दा है किन्तु भृत्यगणों के द्वारा राजा की धनसम्पत्ति का उपभोग किया जाना राजा की उदारता का द्योतक होने से प्रशंसा है । अतः यह निन्दा प्रशंसोपमा है।
आचार्य दण्डी ने निन्दोपमा तथा प्रशंसोपमा- ये उपमा के पृथक् भेद माने हैं। उनके उदाहरण हैं -
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