Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ अलंकारदप्पण यदि गन्ध से युक्त चम्पक पुष्प भ्रमरों का अलंकार बन जाता अर्थात् भ्रमरों का प्रिय और ग्राह्य हो जाता तो कौतूहल से युक्त उसके मार्ग को कौन समझ पाता। चम्पा के फूल के पास भ्रमर नहीं आता जैसा कि कहा गया है - चम्पा तुझमें तीन गुन रूप रंग और बास । ओगुन तुझमें एक है भ्रमर न आवै पास || पूर्वोक्त अतिशय अलंकार के उदाहरण में कवि एक असंभव वस्तु की कल्पना कर लोकसीमातिक्रान्त वचन विन्यास कर रहा है । यही असम्बन्ध में सम्बन्धरूपा अतिशयोक्ति है। आचार्य मम्मट ने अतिशयोक्ति के अनेक भेदों में एक भेद 'यदि' के द्वारा कहे गए असंभव अर्थ की कल्पना को भी माना है। उन्होंने अतिशयोक्ति का यह लक्षण दिया है । निगीर्याध्यवसानं तु प्रकृतस्य समेन यत् । प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् ।। कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः । विज्ञेयातिशयोक्तिः २२ विशेषालंकार का लक्षण विगए वि एक्क देसे गुणंतरेणं तु संवु (थु) ई जत्थ । कीरइ विसेस पअडण- कज्जेण सो विसेसो त्ति ।। ५६ ।। सा।। (काव्यप्रकाश, १०/१०० ) - विगतेऽपि एक देशे गुणान्तरेण तु संस्तुतिर्यत्र । क्रियते विशेषप्रकटनं कार्येण स विशेष इति ।। जहाँ एक अंग के न रहने पर भी अन्यगुण के कारण (वस्तु की) प्रशंसा की जाती है और कार्य के द्वारा वैशिष्ट्य को प्रकट किया जाता है उसे विशेष अलंकार कहते हैं । विसेसालंकारो जहा (विशेषालंकारो यथा ) Jain Education International वि तह णिसासु सोहइ पिआण तंबोल - राक- पव्वइओ । जह पिअअम-पीओ पंडुरो वि अहरो पहाअम्मि ।।५७।। नापि तथा निशासु शोभते प्रियाणा ताम्बूलराग प्रब्रजितः । यथा प्रियतमपीतः पाण्डुरोऽपि अधरः प्रभाते ।। ५७ ।। रात्रियों में प्रियाओं का ताम्बूल की रक्तिमा को प्राप्त अधर वैसा सुशोभित नहीं होता जैसा कि प्रात:काल में (रात्रि में) प्रियतम के द्वारा पान किये जाने से पाण्डुर वर्ण वाला बनकर सुशोभित होता है । यहाँ पर प्रियतम के अधरपान रूपी कार्य के कारण अधर की पाण्डुरतारूप वैशिष्ट्य का कथन है और यह प्रभात कालीन पाण्डुरताजन्य शोभा ताम्बूलराग के विगत होने पर भी बनी हुई है। अतः विशेषालंकार है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82