Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 56
________________ अलंकारदप्पण ३१ यहाँ पर उपमान 'कमल' है और उपमेय 'मुख' है । उपमेय में उपमान का संशय होने से सन्देहालंकार है । ग्रन्थकार के अनुसार उपमान के द्वारा वस्तु का कथनकर उसमें भेद कथन किया जाता है। जैसे यहाँ पर 'कमलमिदम्' कहकर मुखरूप वस्तु का कथन किया गया तदनन्तर 'सकेसरम्' कह कर वैधर्म्य की उक्ति से भेदकथन किया । यह सब संशय केवल मुख की प्रशंसा करने के लिये उत्पन्न किया गया है । - आचार्य मम्मट ने इसीप्रकार का निश्चयान्त सन्देह का यह उदाहरण है - इन्दुः किं क्व कलङ्कः सरसिजमेतत् किमम्बु कुत्र गतम | ललितविलासवचनैर्मुखमिति हरिणाक्षि निश्चितं परतः ।। विभावना अलंकार का लक्षण णत्थि विहेओ किरिआ रसिअस्स विहोइ जच्च फलरिद्धी । भण्णइ विभावणा सा कव्वालंकार इत्तेहिं ।। ७६ ।। नास्ति विभेदा क्रिया रसिकस्यापि भवति जात्यफलऋद्धिः । भण्यते विभावना सा काव्यालंकारविद्भिः ।। ७६ ।। जहाँ पृथक् क्रिया (कारण) का निर्देश न होने पर भी रसिकजनों को उत्तम फल ( कार्य ) की समृद्धि कही जाती है उसे काव्यालंकारविद् विभावना अलंकार कहते हैं। यहाँ पर क्रिया का अर्थ हैं कारण और फल का अर्थ है कार्य । प्रसिद्ध या विशेष कारण के न रहने पर कार्य का कथन करना विभावना अलंकार होता है। आचार्य मम्मट का विभावना लक्षण है क्रियायाः प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिर्विभावना । का. प्र. यहाँ कारण और कार्य के लिये क्रमशः क्रिया और फल शब्दों का प्रयोग हुआ है। विभावणाजहा (विभावना यथा) - वड्डइ असित्तमूलो अणुपओ होंतो वि पसरइ णहम्मि । सग्गं गओ (अस्स) वि अकण्हो अधो अ विमलो जसो तुज्झ ।। ७७ ।। वर्धतेऽसिक्तमूला अनुपदलतापि प्रसरित नभसि । यशस्तव ।। ७७ ।। स्वर्गं गतमप्यकृष्णमधश्च विमलं असिञ्चित मूल वाली भी पराश्रित रहने वाली लता (अमरवेल) आकाश में फैलती है । तुम्हारा यश स्वर्ग तक पहुँचा हुआ भी नीचे भूमण्डल में धवल और निर्मल रूप से विराजमान है । यहाँ सिक्तमूलत्व रूप कारण के न रहने पर भी फैलना रूप कार्य हो रहा है तथा भूमि में स्थित रूप कारण के न रहने पर भी यश के भूमिगत होना रूप कार्य का कथन होने से विभावनालंकार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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