Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 57
________________ अलंकारदप्पण दुविहो हु अण्णो चित्र उत्तरओ, अ जत्थ भावइ स भावओ भणिओ । होइ जह तह, साहिज्जंतं णिसामेह ।। ७८ ।। जहाँ उत्तर से बिल्कुल अलग अर्थ दिखाई देता है वहाँ भावालंकार होता है। वह दो प्रकार का होता है - ३२ भावालंकार का लक्षण कतइ वअणाइ जहिं असुअहिं उत्तरेहिं णज्जंति । सोउहिं तरम्मि उहिं अगूढ भावो सआ उत्तो ।।७९।। कतिचिद् वचनानि यत्र अश्रुतैरुत्तरैः ज्ञायन्ते । श्रोतृभिः त्वरितम् ऊहै: अगूढ भावः सदा उक्तः ।।७९।। जहाँ पर विना उत्तर सुने हुए श्रोताओं के द्वारा अनुमान या तर्क से कुछ वचन जान लिये जाते हैं वह भावालंकार है । ग्रन्थकार ने यह भाव अलंकार का ही लक्षण किया है क्योंकि प्रारम्भ में छठी कारिका में विभावना के बाद भाव का नाम लिया गया है। भाव अलंकार का विवेचन आचार्य रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में किया था जिसका उल्लेख अलंकार सर्वस्वकार ने अपने ग्रन्थ के आदि में किया है। आचार्य रुद्रट का भावालंकार का उदाहरण आचार्य आनन्दवर्धन के वस्तुध्वनि के उदाहरणों से मेल खाता है । अलंकारदप्पणकार ने भावालंकार का कोई उदाहरण नहीं दिया । आचार्य रुद्रट ने भावालंकार का यह लक्षण दिया है - यस्य विकार: प्रभवन्नप्रतिबन्धेन हेतुना येन । गमयति तदभिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ ।। काव्यालंकार ७/३८ किसी के विकार द्वारा जब उसका अभिप्राय और कार्यकारण भाव बोधित होता है तब भावालंकार होता है । अर्थात् भावालंकार में कार्यकारण भाव अनियत रहता हुआ भी व्यङ्ग्य होता है । यद्यपि रुद्रट व्यञ्चनावादी नहीं हैं तथापि उनका 'गमयति पद' से यही अभिप्राय निकलता है। भावालंकार का एक अन्य लक्षण भी आचार्य रुद्रट ने इस प्रकार किया है - अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् । अर्थान्तरमवगमयति यद्वाक्यं सोऽपरो भावः ||७ / ४० ॥ इस भावालंकार का उदाहरण आनन्दवर्धन के वस्तुध्वनि के ही समान है। अन्यापदेश अलंकार का लक्षण जस्स भाईहिं अण्णणो णऽण्णो पअडिअ जो जहिं अत्थो । अण्णावएस - णामो (सो) सिट्ठो अत्थआरेहिं ।। ८० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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