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अलंकारदप्पण इस का अर्थ अस्पष्ट है । फिर भी ऐसा आभासित हो रहा है । कवि कहता है - हे नायिके ! तम प्रिय के सामने अपना मान न छोड़ो। उसे अच्छी तरह से प्यार करो भारी सांस से जो नासिका से निकल रही हो ॥१२९।। (सम्पादक)
यहाँ पर 'माणं माणं' में यमक है । पहला 'मा' केवल निषेधार्थक है । दूसरे 'मान' शब्द का गर्व अर्थ है। मज्झन्त जमगं जहा (मध्यान्तयमकं यथा)
जस्स पवंगमेहिं खअ-समं दिटुं तहाइएणं णिच्चिरं चिरं। विमल-पुरंतर-रअण-विज्बुज्जलं जलं महीहरा धाअ-विसरंत-अंतअं ।।१३०।।
उक्त श्लोक में 'सम समं' तथा 'चिरं चिरं' मध्य में और 'जलं जल' अन्त में यमक . होने से मध्यान्त यमक है। पादाम्यासगत यमक का लक्षण
सेऊ-बद्ध-समुहं तरल लवम्मणं पादं भासे जमअं जहा ।
कंदारा घणवारिअं ओव्यं अं पणअ णालअं ।।१३१।। आवली जमओ जहा (आवलीयमकं यथा)
हं भो रंविज्जल-पजल-पजल-णि-भरे णिम्भरेऊणं ।
सा सा सा मे सा सा मं स अमोतुं कलिओ ।।१३२।।
आवलियमक में यमक शृङ्खलाबद्ध रहता है यथा उपर्युक्त स्थल में जल, पजल, पजल, पजल णिब्भरे णिन्भरे, सा सा सा इत्यादि ।
इस प्रकार के यमक का सुन्दर उदाहरण जयरथ की विमर्शिनी टीका में मिलता है जो इस प्रकार है
साहारं साहारं साहारं मुणइ सज्ज साहारं ।
सं ताणं संताणं संताणं मोहसन्ताणं ।। (साहारं संहारं सहकारं मन्यते साध्वसाहारणम् ।)
सन्नाणं सतां सन्तानं मोहसन्तानम् सअलपद जम जहा (सकलपदयमकं यथा)
तुह कज्जे साहसिआ केण कआ वंदणेण साहसिआ। भणिऊण सा-हसिआ सहिआहि फुडं सा हसिआ ।। १३३।। तव कार्ये सा हसिता केन कृता वन्दनेन साहसिका । भणित्वा सा-हसिका सरनीभिः स्फुटं सा हसिता ।। १३३।।
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