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अलंकारदप्पण आलि! विचक्षणं श्लाघनीयं हालिकस्याज्ञातरसस्य । निर्वासितशिरोवीरमिक्षूणां मुखं विवर्तेन ।।१२४।।
हे सखि! गनों (ईख) का मुख फाड़ने से (छिलका निकालने से) शिरस्त्राणविहीन वीर के समान वह विलक्षण और श्लाघनीय हो जाता है किन्तु अज्ञातास्वाद वाले किसान को इससे क्या।
यहाँ पर 'किम्' पद गूढ नहीं कहा गया है। अत: इसके कथन से इसका अर्थ होगा 'अज्ञातरसस्य हालिकस्य अनेन किम्' । इसे प्रकारान्तर से अन्योक्ति भी कहा जा सकता है। णूणं सद्दे जहा (नूनं शब्दे यथा)
दर णिग्गअं ण पेच्छइ णूणं सहआर-मञ्जरी अज्ज । तेण तुह वच्छ लोअणं अहिओ (अं) वह (इ) मुहअंदं ।।१२५।। दूरनिर्गतां न प्रेक्षते नूनं सहकारमञ्जरीमद्य । तेन तव वत्स लोचनमभिकोपं वहति मुखचन्द्रः ।।१२५।।
हे वत्स थोड़ी-सी निकली हुई आम्रमज्जरी को निश्चय ही तुम्हारे नेत्र अभी नहीं देख पा रहे हैं। इसीलिये तुम्हारा मुखचन्द्र कोप से व्याप्त है । आम्रमञ्जरी कामदेव का बाण होने से कामोद्दीपक है और मान को समाप्त करने वाली है । इस सन्दर्भ में काव्यादर्श का यह पद्य तुलनीय है -
मधुरेण दशां मानं मधुरेण सुगन्धिना ।
सहकरोगमेनैव शब्द शेषं करिष्यति ।। ३/२०
उद्भेदालंकार एक अप्रसिद्ध अलंकार है । इसे अन्य आलंकारिकों ने नहीं स्वीकार किया है । केवल शोभाकरमिश्र के अलंकाररत्नाकर में इसे इस रूप में कहा है - "निगूढस्य प्रतिभेद उद्भेदः” वलितालंकार तथा उत्तरार्ध यमकालंकार का लक्षण
वर (रं)-वअण-पालणं किं-पएण सहि (ह) रिसणं खु-वलअत्ति। जमअं सुइ समभिणणस्थ वअणे पुणुरुत्तआ भणिअ ।।१२६।। वरवचनपालनं किंपदेन सहर्षणं खलु वलय इति । यमकं श्रुतिसमभिन्नार्थवचने पुनरुक्तता भणितम् ।।१२६।।
'किंपद' के (प्रयोग) द्वारा हर्ष दिलाने वाले श्रेष्ठ वचन का कथन वलय अलंकार है और भिन्न अर्थ वाले समान शब्दों की पुनरुक्ति यमक अलंकार है। वलिआलंकारो जहा- (वलितालंकारो यथा)
किं नु समेण हला रूअस्स स सामणी णिव्य सत्तीओ। अस्सा (स्स) ओच्छअ घइओ तस्स अ पाएसु पडिआओ ।।१२७।।
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