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अलंकारदप्पण
की जाती है तब यह उत्प्रेक्षा उत्प्रेक्षावयव नाम से सुनी जाती है । आचार्य दण्डी ने उत्प्रेक्षावयव को उत्प्रेक्षा का भेद माना है ।
'उत्प्रेक्षाभेद एवासावुप्रेक्षावयवोऽपि च । काव्यादर्श २ / ३५९ उत्प्रेक्षावयव की अलंकारता भामह तथा अलंकारदप्पणकार के अतिरिक्त किसी अन्य आलंकारिक को मान्य नहीं है । दण्डी के कथन से कुछ ऐसी संभावना होती है कि वे उत्प्रेक्षावयव को भिन्न अलंकार न मानकर उत्प्रेक्षा का ही भेद मान रहे हैं । रुद्रट के टीकाकार नमिसाधु का कहना है कि उत्प्रेक्षा में उपमान और उपमेय में भेदाभेद विवक्षित होता है । परमार्थतः तो रूपक और उत्प्रेक्षा में अभेद ही होता है -
उत्प्रेक्षायां तु छद्मलक्ष्मव्याजव्यपदेशादिभिः शब्दैरुपमानोपमेययोरभेदो भेदश्च विवक्षितः इति। परमार्थतस्तु उभयत्राभेद एवेति ॥
आचार्य भामह ने उत्प्रेक्षावयव का यह लक्षण दिया है।
संयुक्तः
श्लिष्टस्यार्थेन रूपकार्थेन
च
उपेक्खावअवो जहा (उत्प्रेक्षावयवो यथा )
उद्भिद् अलंकार का लक्षण
किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वितः । पुनरुत्प्रेक्षावयवो
यथा ।।
सम-विअसण- संपूण्ण-वणेण कुसुमाण रआणि विरमंमि । उज्जोवइ हअ - चंदु - दोइ - क्खेण
व पइट्ठो ।। १२२ । । रात्रि समाप्त होने पर चन्द्रमा पदार्थों को प्रकाशित करता है...... ऐसा लगता है जैसे जंगल फूलों से भरा हो और सभी फूल एक साथ पुष्पित हुए हों ॥ १२२॥
(सम्पादक)
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सो उब्भेओ वत्थूण जत्थ वत्थूहि होइ उब्भेओ । अभणिअ किं-पअ - गब्भो बिइओ तण (ह) णूण - सद्देण ।। १२३ ।। स उद्भेद इवास्तु यत्र वस्तुभिः भवति उद्भेदः । अभणित्वा किं-पद-गर्भोऽपि तथा नूनं शब्देन । । १२३ । ।
जहाँ वस्तु कथन द्वारा किसी का उन्मीलन-सा होता है वह उद्भेद अलंकार है । उसमें किंपद के न कहने पर वह किंपदगर्भित (अन्तर्निगूढ ) रहता है और उसी प्रकार 'नूनं' शब्द के कथन से भी (दूसरे प्रकार का उद्भेद होता है)
उब्मिओ भणिओ किंपअगब्भो जहा
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(उद्भेदो भणितः किंपदगर्भो यथा) -
आली विअच्छणं साल (लेणा) णीअं हलिअस्स अमुणिअ- रसस्स । णिव्वासिअ सिर वीर-मिच्छूणं
मुहं विअड्डेणं ।। १२४।।
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