Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 61
________________ अलंकारदप्पण ऊर्जस्वि अलंकार वहाँ होता है जहाँ तेजस्विता तथा अहंकार का उत्कर्ष दिखाया जाय। आचार्य दण्डी ने ऊर्जस्वी का उदाहरण इस प्रकार दिया है अपकर्ताहमस्मीति हृदि ते मा स्म भूद्भयम् । विमुखेषु न मे खड्गः प्रहर्तुं जातु वाञ्छति ।। इति मुक्तः परो युद्धे निरुद्धो दर्पशालिना । पुंसा केनापि तज्ज्ञेयमूर्जस्वीत्येवमादिकम् ।। काव्यादर्श २/२९३-९४ रसवत्, प्रेयस् ऊर्जस्वी, समाहित-ये चार अलंकार प्राचीन दण्डी आदि आलंकारिकों की दृष्टि में अर्थालंकार ही थे। किन्तु ध्वनिकार आचार्य आनन्दवर्धन ने इनके विषय में एक समुचित व्यवस्था दी है। उन्होंने इन्हें रसवदादि अलंकार कहकर गुणीभूत व्यङ्गय काव्यकोटि में अन्तर्भूत किया है । रस, भाव, रसाभास, भावाभास, और भावशान्ति किसी अन्य रस के अंग होने पर क्रमश: रसवद्, प्रेयस, ऊर्जस्वी तथा समाहित अलंकार कहलाते हैं - उज्जा (?द्धा) लंकारो जहा (उर्जालंकारो यथा) वीसत्थ च्चिअ गेण्हसु वइ वि (रि)अणा वेग्ग णिविडिअं खग्गं । पहरन्तं पडिअ पहरणं मुणइ करेसु णास-समत्थं ।।८७।। विश्वस्तं चैव गृहाण वैरिजनावेगनिपीडितं खङ्गम् । प्रहरन्तं पतित प्रहरणं मत्वा कुर्याः नाशसमर्थम् ।। ८७।। शत्रुजनों के (दर्शनजन्य) उत्तेजना से कसकर पकड़े गए खड्ग को विश्वास के साथ पकड़ो। (अपने खड्ग को) प्रहार करते हुए (शत्रु के) शस्त्र को (हाथ से) गिरा देने वाला समझ कर शत्रु को नष्ट करने के योग्य बनाओ। यहाँ पर योद्धा की ऊर्जस्विता का वर्णन होने से ऊर्जा अलंकार है । सहोक्ति अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं - सहोत्ती जहा (सहोक्ति यथा) णिद्दाइ समं लज्जा सरीर-सीर सोहाए सह गआ कित्ती । समजे तुहं अणुरअणी ती बड्डेति णीसासा ।।८८।। निद्रया समं लज्जा शरीर सुषमया सह गता कीर्तिः । समये तव अनुरजनि अतीते वर्धन्ते निश्वासाः ।।८८।। नींद के साथ लज्जा चली गई और शरीर की शोभा के साथ कीर्ति भी चली गई। समय के बीतने पर प्रत्येक रात के अनुसार तुम्हारी सांसें लम्बी होती जाती हैं। यहाँ विरहिणी नायिका का वर्णन है । 'समम्' शब्द के प्रयोग से 'निद्रया' और 'लज्जा' दोनों का ‘गता' के साथ अन्वय हो जाता है उसी प्रकार शरीरसुषमा तथा कीर्ति दोनों का 'गता' से साथ सम्बन्ध होने से 'गता' यह एक शब्द दो का वाचक बन रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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