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अलंकारदप्पण पेमाइसओ जहा- (प्रेमातिशयो यथा)
सहसा तुअम्मि दिढे जो जाओ तीअ पहरिसाइसओ। सो जइ पुणो-वि होसइ सुन्दर तुअ दंसणु च्चेअ ।।९१।। सहसा त्वयि दृष्टे यो जातस्तस्याः प्रहर्षातिशयः । स यदि पुनरपि भविष्यति सुन्दर तव दर्शनेनैव ।।११।।
सहसा तुम्हारे दिखाई पड़ने पर जो उसे (नायिका को) प्रहर्षातिशय हो जाता है वह प्रहर्ष पुन: तुम्हारे दिखने पर ही हो सकता है ।
यहाँ पर प्रीति (नायिकानिष्ठा नायकविषयिणी) के अतिशय का वर्णन होने के कारण प्रेमातिशय अलंकार है।
ग्रन्थकार यहाँ पर आचार्य दण्डी के 'प्रेयोऽलंकार' से स्पष्ट रूप से प्रभावित जान पड़ता है । दण्डी ने प्रियतर आख्यान को प्रेयोऽलंकार माना है। उन्होंने प्रेयोऽलंकार का यह उदाहरण दिया है -
अद्य या मम गोविन्द जाता त्वयि गहागते ।
कालेनैषा भवेत् प्रीतिस्तवैवागमनात् पुनः ।। काव्यादर्श२/२७६ 'उदात्त' और परिवृत्त' अलंकारों का लक्षण
रिद्धि-महाणुभावत्तणेहिं दुविहो वि जाअइ उदत्तो । सो परिअत्तो घेप्पइ जत्थ विसिटुं णिअं दाउं ।।१२।। ऋद्धिमहानुभावत्वाभ्यां द्विविधोऽपि जायते उदात्तः । स परिवृत्तः गृह्यते यत्र विशिष्टं निजं दातुम् ।।१२।।
समृद्धि और महानुभावता के (वर्णन) कारण 'उदात्त' अलंकार दो प्रकार का होता है । जब निज वस्तु को देकर (अन्य की) विशिष्ट (वस्तु) का ग्रहण किया जाता है तब 'परिवृत्त' अलंकार होता है । ग्रन्थकार का परिवृत्त अलंकार का लक्षण भामह के परिवृत्ति अलंकार के अधोलिखित लक्षण से तुलनीय है:
विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन वस्तुनः । अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसौ यथा ।। काव्यालंकार ३/४१।।
(अलौकिक) समृद्धि अथवा किसी प्रभावशाली व्यक्ति के वर्णन में उदात्त अलंकार होता है । इस अलंकार का अन्य प्रसिद्ध आलंकारिकों ने इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया है -
आशयस्य विभूतेर्वा यन्महत्त्वमनुत्तमम् - काव्यादर्श २/३०० उदात्तमृद्धेश्चरितं श्लघ्यं चान्योपलक्षणम् - कुवलयानन्द १६२ उदात्तं वस्तुनः सम्पत् महतां चोपलक्षणम् - काव्यप्रकाश १०/११५
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