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अलंकारदप्पण एक्कन्तक्खेओ जहा (एकान्ताक्षेपो यथा)
खग्ग-प्पहार-दढ-दलिअ-रिउ-दलिअ-कुंभ-वीढस्स । तुअ णत्थि अन्तको महिहराणं संचालणो होज्ज ।।६।। खड्गप्रहारदढ़दलितरिपुदलितकुम्भपीठस्य
। तव नास्ति अन्तको महीधराणां संचालनः भवतु ।।६।।
खड्ग के प्रहार से दृढ़ता पूर्वक दलित किये गये शत्रुओं वाले तथा हाथियों के कुम्भ स्थलों को विदीर्ण करने वाले तुम्हारा कोई भी अन्त करने वाला नहीं है। अत: तुम राजाओं के संचालक बनो अथवा तुम्हारा अन्त नहीं है क्योंकि पर्वतों को कौन हिला सकता है ।
प्रस्तुत आक्षेप अलंकार के प्रथम भेद (भविष्यदाक्षेप) में अनुमति देती हई भी नायिका नायकगमन का निषेध-सा कर रही है । आचार्य दण्डी के अनुसार यहाँ पर अनुज्ञाक्षेप अलंकार है । द्वितीय भेद (एकान्ताक्षेप) आचार्य दण्डी के अर्थान्तराक्षेप अलंकार से साम्य रखता है। जाति तथा व्यतिरेक अलंकार का लक्षण
होइ सहाओ जाई वेरग्गो (वइरेओ)उण विसेस-करणेण । उअणेण मणेही सआ अन्नेणं बुज्झइ कईहिं ।।६१।। भवति स्वभावो जाति: व्यतिरेकः पुनर्विशेषकरणेन । उपमानेन मन्यस्व सदान्येन बुध्यते कविभिः ।।६१।।
स्वस्वभाव कथन में जाति अलंकार होता है । इसी को मम्मट ने स्वभावोक्ति अलंकार नाम दिया है और उसका इस प्रकार लक्षण किया है
__ स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् । का. प्र.
व्यतिरेक अलंकार (उपमेय अथवा उपमान) किसी एक के वैशिष्ट्य को प्राप्त होने पर होता है। यह वैशिष्ट्य कवि द्वारा निबद्ध होता हुआ अन्य (सहृदयजनों) द्वारा समझा जाता है। व्यतिरेक का अर्थ होता है बढ़ जाना, अतिशायी हो जाना। जब उपमेय उपमानातिशायी होता है अथवा उपमान उपमेयातिशायी होता है तभी व्यतिरेक अलंकार होता है। इसका लक्षण 'कुवलयानन्द' में इसप्रकार किया गया है
व्यतिरेको विशेषश्चेदपमानोपमेययोः ।।५६।। __ आचार्य भामह का व्यतिरेक लक्षण अलंकारदप्पणकार के लक्षण से तुलनीय है। भामह कहते हैंउपमानवतोऽर्थस्य
यद्विशेषनिदर्शनम् । व्यतिरेकं तमिच्छन्ति विशेषापादनाद्यथा ।। काव्या.२/७५ 'उनके अनुसार उपमानयुक्त (उपमेय) अर्थ का वैशिष्ट्य प्रदर्शन ही व्यतिरेक अलंकार है।
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