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अलंकारदप्पण
२७ करता है उसका विषम परिस्थिति वाले कार्य में कोई दोष नहीं है ।
__ उक्त ‘पर्याय' नामक अलंकार अन्य आलंकारिकों के (पर्याय) से सर्वथा भिन्न प्रतीत होता है क्यों कि अन्य आलंकारिक आचार्य मम्मट और कुवलयानन्दकार पर्याय के ये लक्षण देते हैं -
"एक क्रमेणानेकस्मिन् पर्यायः' । एकं वस्तु क्रमेण अनेकस्मिन् भवति क्रियत वा स पर्यायः ।" "काव्यप्रकाश
पर्यायो यदि पर्यायेणैकस्यानेकसंश्रयः" - कुवलयानन्दः
आचार्य दण्डी के ‘पर्यायोक्त' नामक अलंकार के लक्षण से उक्त ‘पर्याय' का लक्षण अवश्य साम्य रखता है । दण्डी का पर्यायोक्त का लक्षण है
अर्थमिष्टमनाख्याय साक्षात् तस्यैव सिद्धये ।
यत् प्रकारान्तराख्यानं पर्यायोक्तं तदिष्यते ।। काव्यादर्श २/२९५ आचार्य मम्मट का लक्षण -
'पर्यायोक्तं विना वाच्यवाचककत्वेन यद्वचः। का.प्र. पर्यायोक्त में अभीष्ट अर्थ को सीधे न कहकर प्रकारान्तर से कहा जाता है। अलंकारदप्पणकार के 'पर्याय' के उदाहरण को देखने से लगता है कि उन्होंने 'पर्यायोक्त' को ही पर्याय समझकर लक्षण उदाहरण दिये हैं। उनके उदाहरण में कामुक नायक अपनी इच्छा को साक्षात् न प्रकट करता हुआ अन्य के व्यवहार को बताकर प्रकारान्तर से अपनी रतिक्रीडा में अदोषता को संकेतित कर रहा है। 'यथासंख्य' अलंकार का लक्षण तथा भेद ।
जह णिअ भण्णइ बहुआ परिवाडी पअडणं जहा-संखं । किं पुण विउणं तिगुणं चउग्गुणं होइ कव्वम्मि ।। ६७।। यथानीतं भण्यते बहुधा परिपाटी प्रकटनं यथासंख्यम् ।।
किं पुनः द्विगुणत्रिगुणचतुर्गुणं भवति काव्ये ।।६७।।
'यथासंख्य' नामक अलंकार वहाँ होता है जहाँ अनेक रूप से पूर्व कथित का (उत्तरोत्तर) श्रेणीबद्ध रूप में प्रकटन होता है, और वह यथासंख्य द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण भेद से तीन प्रकार वाला होता है।
यथासंख्य अलंकार में क्रमानुसार वस्तुकथन होता है । पूर्व में जिस क्रम से विविध वस्तुओं का कथन होता है बाद में भी उसी क्रम से विविध वस्तुओं में उसकी अन्विति होती है।
"यथासंख्यं क्रमेणैव क्रमिकाणां समन्वयः ।" काव्यप्रकाश
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