________________
२०
अलंकारदप्पण
'रोध' अलंकार का लक्षण देते है । काव्यादर्शकार दण्डी ने भी पहले उपमा रूपक और दीपक यही अलंकार क्रम रखा है 'रोध' अलंकार उन्हें मान्य नहीं है । दण्डी ने दीपक के अनन्तर आक्षेप अलंकार रक्खा है जिसका लक्षण अलंकारदप्पण के रोध' अलंकार से साम्य रखता है। उनके आक्षेप का लक्षण है
प्रतिषेधोक्तिराक्षेपस्त्रैकाल्यापेक्षया
त्रिधा ।
अथास्य
पुनराक्षेप्य भेदानन्त्यादनन्तता । । काव्यादर्श २ / १२० ॥ अलंकारदप्पणकार ने रोध अलंकार के लक्षण में 'अद्धभणिअं निरुम्भइ' कहकर प्रतिषेधोक्ति को ही संकेतित किया है । 'काव्यादर्श' में आक्षेप अलंकार के आक्षेप्य के भेदों की अनन्तता के कारण अनन्त भेद माने है । चौबीस भेदों के तो उसमें उदाहरण ही मिलते हैं।
आचार्य मम्मट ने आक्षेप का यह लक्षण किया है -
निषेधो वक्तुमिष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया । वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेप द्विधा मतः । । का. प्र. १० / १०६॥ रोहो जहा (रोधो यथा)
कोण - वलइतेण विणा मा भणसु अ पुलइएहिं पासेहिं । अइ- रहस जंपिआई हवन्ति पच्छा अपत्याइं ।। ५१ ।। कोणवलयितेन विना मा भण च पुलकितैः पार्थैः । अतिरभसजल्पितानि भवन्ति पश्चादपथ्यानि ।। ५१ । ।
कोने में (नेत्रों को) घुमाए विना (अर्थात् अगल बगल देखे विना) मत बोलो और ( श्रवणोत्कण्ठा से ) पुलकित हुए पार्श्वस्थ लोगों से भी (सहसा ) मत बोलो। क्योंकि अत्यधिक शीघ्रता में बोले गए वचन बाद में अकल्याणकारी होते हैं ।
प्रस्तुत स्थल में अविचारित भाषण करने वाले को अर्थान्तराक्षेप के द्वारा रोका जा रहा है । अत: यह आचार्य दण्डी के अर्थान्तराक्षेप अलंकार से अंशतः तुलनीय है, पा (प) आणुप्पासो जहा- (पदानुप्रासो यथा)
ससि - मुहि मुहस्स लच्छीं थणसालिणि थणहरं पि पेच्छंती । तणुआअइ तणुओअरि हलि-सुओ कहसु जं जुतं । । ५२ ।। शशिमुखि मुखस्य लक्ष्मी स्तनशालिनि स्तनभारमपि प्रेक्षमाणा ।
तनुकायते तनुकोदरि सखीसु भो कथय यद् युक्तम् ।। ५२ । हे चन्द्रमुखि ! शोभन स्तनों वाली तू (अपने ) मुख की कान्ति और स्तनभार को देखती हुई दुबली होती जा रही है। हे कृशोदरि ! सखियों से जो उचित (विरह वेदना) है, उसे कह दे ।
नायिका विरह के कारण कृश होती जा रही है उसकी मुख की कान्ति तो सुन्दर बनी हुई है किन्तु स्तनभार में तथा शरीर में कृशता आ गई है। उसकी सखियाँ उससे अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org