Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 34
________________ अलंकारदप्पण हे कृशोदरि ! हे स्तनभार से अलसाई और श्रमयुक्त कान्ति वाली! कदलीगर्भ के समान जंघाभार तथा नितम्बभार के कारण मन्द रम्य गति से प्रिय के पास कैसे पहुँचोगी। यहाँ द्वितीय पंक्ति में छ: पदों का दीर्घ समास होने के कारण यह गूढोपमा है। श्रृंखलोपमा तथा श्लेषोपमा के लक्षण उवमा वएहिं उत्तिं विडि(ट्टि) रइएहिं संखला होइ । उवमिज्जइ उवमेओ जेसिं लेसाण सा लेसा ।।२५।। उपमावचोभिरुक्तिराविज्ञिड्डिरचितैः शृङ्खला भवति । उपमीयते उपमेयं यस्मिन् श्लेषाणां सा श्लेषा ।।२५।। जहाँ पर विस्तार से विरचित उपमावचनों द्वारा उक्ति होती है वहाँ शृंखलोपमा होती है और जहाँ श्लिष्ट शब्दों द्वारा उपमेय (वर्णनीय विषय) उपमित होता है वहाँ श्लेषोपमा होती है। संखलोपमा जहा (श्रृंखलोपमा यथा) सग्गस्स व कणअ-गिरी कंचण-गिरिणु व्व महिअल होउ। महिवीढस्स वि भर-धरण-पच्चलो तह तुमं चेअ ।।२६।। स्वर्गस्येव कनकगिरिः काञ्चनगिरेरिव महीतलं भवतु । महीपीठस्यापि भरधरणसमर्थस्तथा त्वं चैव ।।२६।। जैसे स्वर्ग के भार को सुमेरु पर्वत और सुमेरुपर्वत के भार को पृथ्वी धारण करती है वैसे भाराक्रान्त महीतल के भी भार को धारण करने में हे राजन् ! तुम्हीं समर्थ हो। सुमेरुपर्वत के ऊपर स्वर्ग है । इसीलिये सुमेरुपर्वत को 'सुरालय' भी कहते हैं। 'मेरुः सुमेरुहेमाद्री रत्नसानु सुरालम्' इत्यमरः ! प्रस्तुत श्लोक में उपमानों की विस्तृत श्रृंखला उपनिबद्ध होने के कारण शृंखलोपमालंकार इसी अलंकार से साम्य रखने वाले अलंकार को आचार्य दण्डी ने मालोपमा अलंकार कहा है। उसका उदाहरण है पूष्ण्यातप इवाह्रीव पूषा व्योनीव वासरः । विक्रमस्त्वय्यधाल्लक्ष्मीमिति मालोपमा मता ।। ४२॥ काव्यार्श २/४२ जिस प्रकार तेज सूर्य में, सूर्य दिन में, दिन आकाश में प्रकाश देता है उसी प्रकार शौर्य ने आपमें श्री का आधान किया है। ग्रन्थकार का यह शृङ्खलोपमालंकार परवर्ती आचार्यों के 'रशनोपमा' अलंकार के समान है- 'कथिता रशनोपमा। यथोर्ध्वमुपमेयस्य यदि स्यादुपमानता' साहित्यदर्पण १०/२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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