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अलंकारदप्पण
१३ वरसे हुए ओलों (जलपाषाणों) से पूरित पृथ्वी वर्षाकाल की रातों में शोभित हो रही है । निन्दोपमा तथा अतिशयितोपमा का लक्षण
उवमेओ णं प्रिंदिज्जइ थुइ-ववएसेणं जत्थ सा जिंदा । अइसअ-भणिआ स च्चिअ अइस (इ) आ भण्णए उवमा ।।३४।। उपमेयं निन्द्यते स्तुतिव्यपदेशेन यत्र सा निन्दा । अतिशयभणिता सैव अतिशयिता भण्यते उपमा ।।३४।।
प्रशंसा के व्याज से जहाँ उपमेय की निन्दा की जाती है वह निन्दितोपमा है और जहाँ उपमेय का अतिशय कथन होता है वह अतिशयितोपमा है।
यहाँ निन्दतोपमा में पूर्वोक्त निन्दाप्रंशसोपमा के ठीक विपरीत कथन है। निन्दाप्रशंसा में निन्दा के व्यपदेश से प्रशंसा का कथन है तथा निन्दतोपमा में स्तुति के व्यपदेश से निन्दा का कथन होता है । पूर्वोक्त अलंकार में प्रशंसा तथा दूसरे में निन्दा ही पर्यवसायी अर्थ होता है। सुअणिंदोवमा जहा (श्रुतनिन्दोपमा यथा)
तंबोल-राअ-मिलिअंजणेण अहरेण सोहसि पओसे । दरपरि (णि) णअ जंबूहलकन्ति सरिसेण पिहु अत्यि ।।३५।। ताम्बूलरागमिलिताञ्जनेन अधरेण शोभसे प्रदोषे ।
दरपरिणितजम्बूफलकान्तिसदृशेनापि खल्वस्ति ।। ३५।।
सन्ध्याकाल में तुम पान की रक्तिमा से लिप्त अधरोष्ठ से सुशोभित हो रही हो । तुम्हारा वह अधर थोड़ा पके हुए जामुन के फल की कान्ति के सदृश कान्ति वाला भी हो रहा है।
यहाँ पर यदि रक्त अधर की उपमा बिम्बफल से दी गई होती तो अधर की वास्तविक शोभा होती । जम्बूफल ईषद् कालिमा से युक्त होने के कारण रक्ताधार का समीचीन उपमान न होने से निन्दिता उपमा है, रक्तकृष्ण जामुन के फल के साथ सादृश्य स्थापित करने के लिये अधर को ताम्बूल राग से संपृक्त कज्जल की कान्ति से युक्त बताकर उपमेय को किंचित् निन्दनीय स्तर पर पहुंचा दिया। निन्दित उपमान से उपमेय भी निन्दित हो गया । इसी से मिलता-जुलता अलंकार व्याजनिन्दा अलंकार भी है । जिसका कुवलयानन्द में यह लक्षण है -
- निन्दाया निन्दया व्यक्तिर्व्याजनिन्देति गीयते ।-कुव० ७२॥
विधे स निन्द्यो यस्ते प्रागेकमेवाहरच्छिरः ।।७२।। निन्दोपमा का काव्यादर्श में यह उदाहरण है - पद्मं बहुरजचन्द्रः क्षयी ताभ्यां तवाननम् । समानमपि सोत्सेकमिति निन्दोपमा स्मृता ।। २।३०।।
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