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अलंकारदप्पण अइसइय उवमा जहा (अतिशयितोपमा यथा)
जोण्हा-भअ-सरणागअ-तिमिर-समूहहिं णिज्जिअ मिअंकं । सेविज्जइ वअणं सास-गन्ध-लुद्धेहिं भसलेहिं ।।३६।। ज्योत्स्नाभयशरणागततिमिरसमूहैः निर्जितमृगाङ्कम् ।।
सेव्यते वदनं श्वासगन्धलुब्धैः भ्रमरैः ।। ३६।। (नायिका के) श्वास के सौरभ के लोभी भ्रमरगण चन्द्रमा को जीतने वाले नायिकामुख का सेवन कर रहे हैं । वे भ्रमरगण चाँदनी के भय से शरणागत अन्धकार समूह के सदृश हैं । यहाँ पर भ्रमरगण उपमेय हैं उसका सादृश्य तिमिर समूह से दिखाया गया है । सदृश, तुल्यादि शब्दों के अभाव से वाचकलुप्ता उपमा है । सौरभ के लोभ से नायिका के मुखमण्डल पर भ्रमरराशि का मंडराना तथा उसे ज्योत्स्ना के भय से शरणागत अन्धकार राशि बताना अतिशयता का जनक होने से अतिशयउपमा (अतिशयितोपमा) है। अतिशयोपमा को आचार्य दण्डी ने भी उपमाभेद रूप से स्वीकार किया है। उन्होंने उदाहरण द्वारा ही उसे समझाया है । उनका उदाहरण है
त्वय्येव त्वन्मुखं दृष्टं दृश्यते दिवि चन्द्रमाः ।
इत्येव भिदा नान्येत्यसावतिशयोपमा ।। काव्यादर्श २/२२
टीकाकार ने इसे इस प्रकार समझाया है - उपमानोपमेययो: गुणक्रियादिभिः महत्यपि भेदे किंचिदभेदप्रदर्शनपुरःसरं नान्यो भेद इति अभिन्नाध्यवसानेन उपमेयस्य गुणक्रियातिशयो वर्णितो भवति, अत अतिशयोपमो। श्रुतिमिलिता तथा एकविकल्पिता और अनेकविकल्पिता उपमा का लक्षण
जा सरिसएहिं वज्झइ सद्देहिं सा हु होइ सुइ-मिलिआ। एक्काणिक्क-विअप्पण-भेएण विअप्पिआ दुविहा ।। ३७।। या सदृशै बर्बाध्यते शब्दैः सा भवति श्रुतिमिलिता । एकानेकविकल्पनभेदेन विकल्पिता द्विविधा ।।३७।।
जो सदृश आदि शब्दों से रहित होती है वह श्रुतिमिलिता उपमा है और जो एक या अनेक विकल्पों से युक्त है वह विकल्पिता उपमा होती है। भरतमुनि ने उपमा के चार भेदों में कल्पितोपमा नामक भेद स्वीकार किया है। सुइमिलिउवमा जहा -
श्रुतिमिलितोपमा का उदाहरण इस प्रकार है -
दहण परकलत्तं छन्दा वडिअं मणोहरं कव्वं । खिज्जइ खलो विअंभइ दूसइ दोसं अपेच्छन्तो ।।३८।।
१. वडिअं = गृहीतम् - पाइअसइमहण्णवो ।
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