Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 21
________________ XVI गाथा में भगवान शिव को नमस्कार करना तथा ११७वीं गाथा में द्विजों के आशीर्वाद की महिमा का वर्णन भी इस बात के प्रमाण हैं कि ग्रन्थकार वैदिक परम्परा का ही आचार्य रहा होगा। ‘अलंकारदप्पण' में १३४ पद्य हैं जिनमें काव्य के ४४ अलंकारों के लक्षण और उदाहरण हैं। ५वीं से १०वीं कारिका तक गिनाए गए अलंकारों का क्रम इस प्रकार हैउपमा, रूपक, दीपक, रोध, अनुप्रास, अतिशय, विशेष, आक्षेप, जाति, व्यतिरेक, रसिक, पर्याय, यथासंख्य, समाहित, विरोध, संशय, विभावना, भाव, अर्थान्तरन्यास, अन्यपरिकर, सहोक्ति, ऊर्जा, अपहृति, प्रेमातिशय, उदात्त, परिवृत्त, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, बहुश्लेष, व्यपदेशस्तुति, समयोगिता, अप्रस्तुतप्रशंसा, अनुमान, आदर्श, उत्प्रेक्षा, संसृष्टि, आशी:, उपमारूपक, निदर्शना, उत्प्रेक्षावयव, उद्भेद, वलित, और यमक। उक्त अलंकारों में द्रव्योत्तर, गुणोत्तर, क्रियोत्तर, रोध, आदर्श, आतुर, तथा प्रेमातिशय नवीन अलंकार हैं। इनकी चर्चा किसी अन्य आलंकारिक द्वारा नहीं की गई है। अलंकारदप्पणकार ने आचार्य भामह की तरह अलंकार का कोई सामान्य लक्षण नहीं दिया है और न अलंकारों के पौर्वापर्य का कोई युक्तिसंगत क्रम ही रखा है। शब्दालंकार और अर्थालंकार की विभाजक रेखा भी नहीं खींची गई है। कहीं-कहीं अलंकारों के लक्षण भी स्पष्ट नहीं हैं, अत: खींच-तान कर अर्थ निकालना पड़ा है। कहीं लक्षण की संगति भी उदाहरण में ठीक नहीं बैठ पाती। अलंकारों के लक्षण और भेद प्राय: आचार्य भामह तथा दण्डी से साम्य रखते हैं। अलंकारों के सभी उदाहरण ग्रन्थकार के स्वरचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे न तो किसी अलंकार ग्रन्थ में मिलते हैं और न गाहासत्तसई अथवा वज्जालग्गं में ही मिलते हैं। इससे ग्रन्थकार के कवित्वगण का भी संकेत मिलता है। इसका अलंकार विवेचन आचार्य भामह, दण्डी और कहीं-कहीं आचार्य रुद्रट के विवेचन से साम्य रखता है। इसमें विशेषरूप से भामहालंकार की छाया दिखाई देती है। भामह के “न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम्" १/१३ की ही स्पष्ट छाया है अलंकारदप्पण की अधोलिखित कारिका में अच्चंतसुन्दरं पि हु निरलंकारं जणम्मि कीरन्तं । कामिणीमुहं व कव्वं होइ पसण्णं पि विच्छाअं ।।३।। उत्प्रेक्षावयव नामक अलंकार भी केवल भामह और अलंकारदप्पणकार को ही मान्य है अन्य किसी आलंकारिक को नहीं। आचार्य दण्डी ने उसे स्वतन्त्र अलंकार न मानकर उत्प्रेक्षा का ही भेद माना है। भोज ने भी उसका उत्प्रेक्षालंकार में ही अन्तर्भाव किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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