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अलंकारदप्पण
चन्द्रारविन्दयोः कक्ष्यामतिक्रम्य मुखं तव ।
आत्मनैवाभवत् तुल्यमित्यसाधारणोपमा ।। काव्याद. २/ ३७ ॥ गुणकलिआ जहा (गुणकलिता यथा)
चंपअ-लइव्व णव- कुसुम-सुन्दरा सहइ विंझ- कडइव्व । वच्छ-त्थलम्मि - लच्छी तमाल-णीले महु- महस्स ।। १७ ।। चम्पकलतेव नवकुसुमसुन्दरी शोभते विन्ध्यकट' इव । वक्षःस्थले लक्ष्मी: तमालनीले
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मधुमथस्य ।। १७ ।। नवकुसुम से सुन्दर चम्पकलता के समान शोभित विन्ध्याचल की कटि के समान मधुमथन (विष्णु) के तमालनील वक्षः स्थल में लक्ष्मी शोभित होती है।
यहाँ पर विन्ध्याचल का नवकुसुमसुन्दर कटिप्रदेश उपमान है तथा मधुमथन का लक्ष्मी से अधिष्ठित वक्ष:स्थल उपमेय है । दोनों में गुणसाम्य के कारण गुणकलिता उपमा है असमा जहा (असमा यथा)
जोण्हा णिम्मल - लाअण्ण- पसर- चिंच 'इअ सयलभुअणा इ । तुह तुज्झ व्व किसोअरि ! समाणरूआ जए णत्थि ।। १८ ।। ज्योत्स्नानिर्मललावण्यप्रसार चिंचइअ सकलभुवना ।
तव तवेव कृशोदरि समानरूपा जगति नास्ति ।। १८ ।। हे कृशादरि ! तुम चाँदनी के समान निर्मल लावण्य के प्रसार से समस्त भुवन को मण्डित करने वाली हो, तुम्हारे समानरूप वाली संसार में (अन्य) नहीं है ।
यहाँ पर कृशोदरी' उपमेय है। उसके सदृश कोई भी उपमान न होने के कारण वह उपमेय उपमान विजयी है, अतः यहाँ असमोपमालंकार है । आचार्य मम्मट के अनुसार यहाँ उपमानलुप्ता उपमालंकार है ।
मालोपमा तथा द्विगुणोपमा का लक्षण
सा माला उवमाणाण जत्य विविहाण होई रिछोली' । विउण सरिसोवमा जा विणिम्मिआ सा माला उपमानानां यत्र विविधानां विगुणसदृशोपमायां
विनिर्मिता
विउणरूअ त्ति ।। १९।। भवत्यावलिका । विगुणरूपेति ।। १९ ।।
१. " गजगण्डकटी करटौ" अमरकोष । कट शब्द कटि का भी वाचक है । २. 'चिंचइअ' देशीशब्द है । इसका अर्थ मण्डित या विभूषित है । "चिंचइओ मण्डित इति तु मण्डिधात्वादेशे सिद्धम् " देशीनाममाला ३ / १३ ३. रिछोली देशी शब्द है । इसका अर्थ है पंक्ति । द्रष्टव्य देशीनाममाला ७/७
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