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अलंकारदप्पण जहाँ देशकाल और क्रिया के अनुसार भिन्न स्वरूप उपमान के साथ उपमेय का गुणमूलक सादृश्य प्राप्त होता है वह उपमा अलंकार है।
यहाँ पर अलंकारदप्पणकार गणसाम्य को उपमा का आधार मानते हैं। शब्दसाम्यमूलक उपमा को वे एक अलग अलंकार मानते हैं जिसे उपमाश्लेष कहते हैं ।
उनका यह उपमालक्षण आचार्य भामह के उपमालक्षण से साम्य रखता है। आचार्य भामह का लक्षण है -
विरुद्धेन उपमानेन देशकालक्रियादिभिः । उपमेयस्य यत्साम्यं गुणलेशेन सोपमा ।।काव्यालंकार २/३०।। पडिवत्यू गुणकलिआ असमा माला अ विगुणरूवा अ । संपुण्णा गुढा संखला-सिलेसा अ दर-विअला ।।१२।। प्रतिवस्तु गुणकलिता असमा माला च विगुणरूपा च । सम्पूर्णा गूढा शृखला श्लेषा च दरविकला ।।१२।। एक्क-क्कमा पसंसा तल्लिच्छा प्रिंदिआ अइसआ अ । सुइ-मिलिआ तह अ विअप्पिआ अ सत्तरह उवमाओ ।।१३।। एकक्रमा, प्रशंसा तल्लिप्सा निन्दिता अतिशया च । श्रुतिमिलिता तथा विकल्पिता च सप्तदश उपमाः ।।१३।।
प्रतिवस्तु, गुणकलिता, असमा, माला, विगुणरूपा, सम्पूर्णा, गूढा, शृङ्गला, श्लेषा, दरविकला, एकक्रमा (अन्योन्या), प्रशंसा, तल्लिप्सा, निन्दिता, अतिशया, श्रुतिमिलिता तथा विकल्पिता-ये उपमा के सत्रह भेद हैं । इसके अनन्तर उपमा के भेदों के लक्षण उदाहरण देते हुए ग्रन्थकार सर्वप्रथम प्रतिवस्तूपमा का विवेचन करता है ।
प्रतिवस्तूपमा अलंकार का लक्षण पडिवत्यूए-सा उवमा जा होइ समाण-वत्थु-रूआ अ । डव-मिव-पिवाइ-रहिआ वि-सरिस-गुणपअअए आहिन्तो।।१४।। प्रतिवस्तु एषा उपमा या भवति समानवस्तुरूपा च ।। इव मिव पिवादिरहितापि सदृशगुणप्रत्ययेभ्यः ।।१४।।
प्रतिवस्तूपमा वह होती है जो समान गुणज्ञान के कारण इव, मिव, पिव, आदि वाचक शब्दों से रहित होती हुई भी असमान गुणों के होते हुए भी समान वस्तुरूपा होती है।
ग्रन्थकार ने प्रतिवस्तपमा को आचार्य दण्डी तथा भामह के समान ही उपमा का एक भेद माना है, मम्मटादि अन्य आचार्य इसे एक भिन्न अलंकार मानते हैं, अलंकारदप्पण का प्रतिवस्तुपमा लक्षण दण्डी के लक्षण से साम्य रखता है। दण्डी ने प्रतिवस्तूपमा का यह लक्षण दिया है -
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