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XV
काव्यादर्श भी लिखा हुआ है।
आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी जब जैसलमेर भण्डार का उद्धार एवं सुव्यवस्था कर रहे थे तब मैं अपने विद्वान् मित्र नरोत्तमदासजी स्वामी के साथ वहाँ पहुँचा और स्वामी जी ने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की प्रतिलिपि की जिसे मुनि पुण्यविजय जी ने मूल प्रति से मिलाकर संशोधित कर दिया । तदनन्तर मेरे भातृपुत्र भंवरलाल ने इसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद का कठिन कार्य यथामति सम्पन्न किया। अनुवाद में भूलें और कमी रह सकती हैं। केवल एकमात्र प्राकृत के अलंकारशास्त्र का सभी विद्वानों को परिचय हो जाय इसीलिये श्रम किया जा रहा है ) "
India Antiquary Vol. IV पृष्ठ ८३ में अलंकारदप्पण के सम्बन्ध में जो सूचना है, वह इस प्रकार है- "Dr. Buhler on the celebrated Bhandara of Sanskrit Manuscripts at Jessalmir (Translated by Shankar Pandurang Pandit)
"The Alamkara is representsd by very important works, of works that are already known there is Daṇḍins kavyadarsa in a copy dated Samvat 1161 (Ad. 1105) 'There is also the kāvyaprakāśa of Mammata with a com - mentary by Someśvar which I believe is new. Besides there is the Udbhaṭālamkāra, the Alamkaraśāstra of Vamanācārya and a tīkā on a portion of the Rudratalamkara as also an Alamkāradarpana ( 134 Slokas) in Prakrit.
अलंकारदप्पण का रचयिता अज्ञातनामा है। ग्रन्थकार ने अपना नाम कहीं भी नहीं दिया है, इससे उसकी आत्म विज्ञापन पराङ्मुखता ही प्रतीत होती है । प्राय: कुछ विद्वान् इसे किसी जैनाचार्य की रचना मानते हैं और उसका कारण बताते हुए कहते हैं कि इसके आदि के मङ्गलश्लोक में श्रुतदेवता को प्रणाम किया गया है। वस्तुतः गाथा में श्रुतदेवता नहीं, अपितु श्रुतिदेवी को प्रणाम किया गया है
सुन्दरपअविण्णासं
विमलालंकारेहिअसरीरं ।
सुइदेवियं च कव्वं च पणविअ पवरवण्णं ॥ १ ॥
जैन आगमों के लिये श्रुत का प्रयोग होता है श्रुति का नहीं, जैसे श्रुतज्ञान, श्रुतकेवली, श्रुतस्कन्ध आदि । अलंकारदप्पण में सुइदेवियं अर्थात् 'श्रुतिदेवीम्' कहा गया है। श्रुति का अर्थ यदि श्रुत ही माना जाय तो भी श्रुतदेवी से तात्पर्य वाग्देवी सरस्वती से ही है और सरस्वती वैदिक परम्परा की ही देवी हैं। इस कारण ग्रन्थकार की वेद में निष्ठा होने के कारण उसे जैनाचार्य मानना समीचीन नहीं प्रतीत होता । इसके अतिरिक्त ६९वीं
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