Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 17
________________ XII परिवृत्ति अलंकार वाक्यन्यायमूलक अर्थालंकार है। जिसमें सम अथवा असम पदार्थों के परस्पर विनिमय का वर्णन किया जाता है। इसका वर्णन भामह से विश्वेश्वर पण्डित तक होता रहा है। अलंकारदर्पणकार ने इसी को परिवृत्त अलंकार कहा है। द्रव्योत्तर में द्रव्य की प्रधानता होती है, क्रियोत्तर में क्रिया की प्रधानता होती है और गुणोत्तर में गुण की प्रधानता होती है। अलंकारदर्पणकार के इन अलंकारों को कारक और क्रियादीपक में अन्तर्भूत किया जा सकता है। श्लेषालंकार शब्द और अर्थ दोनों है। श्लिष्ट या अनेकार्थवाची शब्दों के द्वारा अनेक अर्थ के अभिधान में शब्दश्लेष होता है। जहाँ उपमान और उपमेय एक ही शब्द से निरूपित हो वह श्लेषालंकार है। इसका विवेचन प्रथमतः भामह ने किया । यद्यपि भरत ने उसे गुण में स्थान दिया था। भामह का जोर अर्थश्लेष पर रहा। दण्डी, उद्भट, मम्मट आदि आचार्यों ने इसे अधिक स्पष्ट किया। रुय्यक ने इसे अर्थालंकार माना है। रुद्रट ने इसके अठारह भेद किये। अलंकारदर्पणकार ने सहोक्ति, उपमा और हेतु इन तीन भेदों का ही वर्णन किया है। समासोक्ति में वाच्यार्थ केवल प्रकृतपक्षक होता है और अप्रकृतपक्षक की प्रतीति होती है, जबकि श्लेष में दोनों वाच्यार्थ होते हैं। व्यपदेश स्तुति अपरिचित-सा अलंकार है। समयोगिता तुल्ययोगिता का समानार्थक है। यह सादृश्यमूलक अलंकार है। जहाँ सभी प्रस्तुतों या अप्रस्तूतों का एक ही क्रिया या गण के साथ अन्वय हो, वहाँ समयोगिता अलंकार होता है। भामह दण्डी, वामन ने इसका विवेचन किया पर मम्मट ने इसके स्वरूप को व्यवस्थित किया। अप्रस्तुत प्रसंगालंकार विशेषालंकार का समानार्थक-सा लगता है। अनुमान में साधन द्वारा साध्य का चमत्कारक वर्णन रहता है। आदर्श नामक अलंकार तो अलंकार दर्पणकार का बिल्कुल अपना है। अन्य किसी ने उसे स्वीकारा नहीं है। उत्प्रेक्षा अलंकार तो प्रसिद्ध है ही। आशी: अलंकार का संकेत भामह ने किया पर उसका सर्वप्रथम लक्षण किया दण्डी ने। अलंकारदर्पणकार ने उसी आधार पर इस अलंकार को स्पष्ट किया है। उपमारूपक अलंकार भामह, दण्डी और वामन ने स्वीकार किया है, पर वस्तुत: वह रूपक से अधिक भिन्न नहीं लगता। दण्डी ने इसे रूपक का ही एक भेद माना है। निदर्शन एक सादृश्यमूलक अलंकार है। इसे भी सभी ने स्वीकार किया है। उत्प्रेक्षावयव का उद्भावन भामह ने किया पर भोज आदि परवर्ती आलंकारिकों ने इसका अन्तर्भाव उत्प्रेक्षा में ही कर दिया। वस्तुत: यह स्वतंत्र अलंकार न होकर श्लेष, उत्प्रेक्षा और रूपक का ही मिश्रित रूप है। रूपक में ताद्रूप्यारोप होता है जबकि निदर्शन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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