Book Title: Alankardappan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 14
________________ IX पर्याय का अर्थ अनुक्रम है। इसमें अनेक वस्तुओं की स्थिति का वर्णन एक आधार में अथवा एक ही आधेय की क्रमशः अनेक धाराओं में कालभेद से होता है। पर अलंकारदर्पणकार ने पर्याय को अन्य के व्याज से कही जाने वाली निबद्ध उक्ति में माना है। सम्भवतः यहाँ पर्याय से 'पर्यायोक्ति' का तात्पर्य रहा है। पर्यायोक्ति के उद्भावक आचार्य भामह रहे हैं। भामह के ही मन्तव्य के उद्भट और दण्डी ने स्पष्ट किया है । बाद में पर्यायोक्त का वैज्ञानिक लक्षण प्रस्तुत करने का श्रेय मम्मटाचार्य को है। यथासंख्य वाक्य न्यायमूलक अलंकार है । इसका सर्वप्रथम उल्लेख भट्टिकाव्य में मिलता है। भामह ने मेधाविन् नामक किसी आचार्य को इसका उद्भावक माना है । दण्डी भामह के ही विचारों में कुछ नया चिंतन दिया और उपमानोपमेय भाव में भी यथासंख्य की स्थिति स्वीकार की । भामह से वामन तक यथासंख्य में अन्यालंकार का मिश्रण होता रहा जिसे रुद्रट ने परिष्कृत किया। उन्होंने कहा कि पदार्थ यथाक्रम विशेषण- विशेष्य भाव से गृहीत हो तो ही यथासंख्य होगा। अलंकारदर्पणकार ने इसके द्विगुण, त्रिगुण और चतुर्गुण भेद किये हैं। समाहित अलंकार को सार भी कहा जाता है। यह श्रृंखलामूलक अलंकार है । इस अलंकार के उद्भावक आचार्य रुद्रट हैं । रुय्यक ने इसे उदार तथा भोज ने उत्तर संज्ञा भी दी है। जयदेव ने सार तथा उदारसार इन दो अलंकारों को माना है, जबकि दीक्षित ने सार में ही उदारसार को अन्तर्भूत किया है। इसमें उत्कृष्टता का आरोह होता है । इस अलंकार का यदि और भी अन्त: परीक्षण किया जाये तो इसकी तुलना समाधि अलंकार से की जा सकती है। इस अलंकार के मूल में 'काकताली न्याय' की कल्पना की गई है। इसमें दो कारण होते हैं - एक पहले से ही विद्यमान होता है और एक आगन्तुक । इसका सर्वप्रथम विवेचन भामह ने किया। भामह और दण्डी ने इसका नाम समाहित ही दिया है। अलंकारदर्पणकार ने दण्डी का अनुकरण किया है। विरोधालंकार विरोधमूलक अलंकार है जहाँ वास्तविक विरोध न होकर विरोधाभास मात्र होता है। इसके उद्भावक भामह हैं। उद्भट, दण्डी, वामन, भोज आदि आचार्यों ने भामह का ही अनुकरण किया है। पर रुद्रट ने उसे वास्तवमूलक अलंकारों के अन्तर्गत रखा है। मम्मट ने इसके दस भेदों का वर्णन किया है जिनका अनुकरण रुय्यक ने किया है। अलंकारदर्पणकार ने विरोध के कोई भेद नहीं गिनाये हैं। संदेह सादृश्यमूलक अलंकार है । भामह इसके पुरस्कर्ता हैं। दण्डी ने इसे स्वतन्त्र अलंकार न मानकर उपमा के एक भेद संशयोपमा के रूप में स्वीकार किया है। भामह ने इसका नाम ससन्देह दिया है। उद्भट ने इसके दो भेद किये हैं - निश्चयगर्भ तथा शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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