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ऐसे क्या पाप किए! ___इसी दृष्टिकोण को लेकर शास्त्रों में प्रतिज्ञा निर्वाह का भी महत्व दर्शाया गया है। परन्तु जो मात्र प्रतिज्ञा निर्वाह में ही अटक जाते हैं, उसका इन्हें अबतक क्या लाभ हुआ, इस दिशा में किये गये अपने श्रम के फल पर विचार नहीं करते, उनकी उस कोरी प्रतिज्ञा निर्वाह का श्रम निरर्थक है - ऐसा भी जहाँ तहाँ शास्त्रों में उल्लेख है।
आज के पढ़े-लिखे वर्ग में देव-दर्शन के प्रति उत्साह-हीनता का एक जबरदस्त कारण यह भी है कि जो पुरातन पन्थी, रूढ़िवादी, इने-गिने लोग जीवन भर प्रतिज्ञाओं का निर्वाह करते रहते हैं। फिर भी वही कषायें, वैसी ही बेईमानी, वही अशान्ति उनके जीवन में दिखाई देती है अतः लोगों को निराशा होती है, उन्हें कहने का अवसर मिलता है कि "जो देव दर्शन या पूजन-पाठ करते हैं उन्होंने क्या पा लिया? हममें उनमें क्या
अन्तर है?"
इस प्रकार ये रूढ़िवादी भी यथार्थ में अपने आदर्शों को भूले हुए ही हैं। वे आदर्श क्या हैं? कौन से है? हम उन जैसे कैसे बन सकते हैं? ये सब विचारणीय प्रश्न हैं चिन्तन के विषय हैं।
'देव' शब्द यहाँ एक विशिष्ट अर्थ में लिया गया है, "जो वीतरागी व सर्वज्ञ हों वे देव हैं।" अरहंत व सिद्ध परमात्मा पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ हैं, अतः वे ही हमारे परमोत्कृष्ट आराध्य देव हैं। आचार्य उपाध्याय
और साधु यद्यपि पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ नहीं हैं; परन्तु वे वीतरागता व सर्वज्ञता के सच्चे उपासक हैं, उन्होंने आंशिक वीतरागता भी प्रगट कर ली है, तथा सम्यक्ज्ञानी हैं, अतः इन्हें भी उपचार से देव संज्ञा प्राप्त है, ये भी पूज्य व वंदनीय हैं। इस प्रकार जिनागम में पंच परमेष्ठी को ही 'देव' माना गया है।
नव देवताओं के नाम भी शास्त्रों में आते हैं। “नव देव" पूजन भी प्रचलित हैं, परन्तु वे “नव देवता” कोई अन्य नहीं है, उपर्युक्त पंच परमेष्ठी और इन्हीं से संबंधित जिन चैत्य (प्रतिमा), जिन चैत्यालय (जिन मन्दिर), जिनवाणी (शास्त्र) एवं जिनधर्म - ये नवदेव हैं। नवग्रह पूजन
नित्य देवदर्शन क्यों? में जो शनि आदि नवग्रह आते हैं, वे कोई नवदेव नहीं हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इन ग्रहों का निमित्त पाकर जो कोई विघ्न बाधा उपस्थित देखी जाती है, वे विघ्न-बाधायें परमात्मा रूप पंच परमेष्ठी की आराधना से स्वयमेव दूर हो जाती है, ऐसा पूजा का अभिप्राय है यहाँ लौकिक ज्योतिषी नवग्रहों में 'वीतरागी सच्चे देव' का भ्रम नहीं पालना चाहिए। ___पंच परमेष्ठी के दर्शन-स्मरण से इन नवग्रहों की विघ्नबाधा दूर करने की कामना करना ठीक नहीं है, अरे! जिस परमात्मा के स्मरण से सर्व पापों से मुक्त हो जाते हैं, भक्त का अंतरंग-बहिरंग सब पवित्र हो जाता है, विषय कषायों से अरुचि होकर निज आत्मा में रुचि उत्पन्न हो जाती है, आत्मा में परम शान्ति की प्राप्ति हो जाती है। क्या उससे लौकिक विघ्नबाधायें दूर नहीं होंगी, अवश्य होगी परन्तु ज्ञानी भक्त लौकिक कामनाओं की इच्छा करता ही कब है? ___हम जिन-दर्शन, पूजन, भक्ति की महिमा परक स्तुतियाँ प्रतिदिन पढ़ते हैं, परन्तु हमें पता नहीं हम क्या-क्या पढ़ जाते हैं? उनका क्या अर्थ है? यदि हम उनके अर्थ पर, अभिप्राय पर ध्यान दें तो जिनदर्शन की महिमा से महिमावंत हुए बिना नहीं रह सकेंगे। दर्शन पाठ ही देखिये -
"दर्शनं देव देवस्य, दर्शनं पाप नाशनं ।
दर्शनं स्वर्ग सोपानं, दर्शन मोक्ष साधनं ।।" अर्थात् देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्मा के दर्शन सर्व पापों के नाश करने वाले हैं, देव दर्शन स्वर्ग की सीढ़ी है, और तो क्या देवदर्शन साक्षात् मोक्ष का साधन है। और भी -
"विघ्नौद्या प्रलयं यान्ति, स्तूयमाने जिनेश्वरे' अर्थात् जिनेश्वर परमात्मा के स्तवन करने से सम्पूर्ण विघ्न समूह का नाश होता है।
कविवर दौलतरामजी तो लिखते हैं - 'जय परम शान्त मुद्रा समेत भविजन को निज अनुभूति हेतु' अर्थात् वीतरागी भगवान की परम शान्त
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