Book Title: Aise Kya Pap Kiye Author(s): Ratanchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ ऐसे क्या पाप किए! ऐसे क्या पाप किए! रहना, शरीर में रोगादि होने पर दुःखी होना, शारीरिक पीड़ा होने पर व्याकुल हो उठना इसमें भी पाप है, ऐसा बहुत ही कम लोग जानते हैं, जबकि ये आर्तध्यान रूप पाप परिणाम है। पंचेन्द्रिय के भोगों में सुख बुद्धि होना, उन्हें जुटाने की कामना में लगे रहना भी कोई पाप है, यह बात भी लोगों की समझ के बाहर ही है। अन्यथा हिंसादिक की तरह इसे क्यों नहीं छोड़ देते? तथा आत्मा में रागादिक की उत्पत्ति ही हिंसा है, इस हिंसारूप पाप परिणामों की पहचान हमें नहीं है, बस ये ही कुछ ऐसे कारण हैं कि जिनके कारण हम दिन-रात पाप करते हुए भी स्वयं को पापी नहीं मान पाते और जब इन पापों का परिणाम (फल) जीवन में आता है तब आश्चर्य होता है कि "अरे! मैंने ऐसे क्या पाप किए?" आश्चर्य इसका नहीं होना चाहिये कि कौन से पाप किये, बल्कि आश्चर्य तो यह है कि मिथ्यामान्यतावश दिन-रात पाप भाव में रहते हुए ऐसा महान पुण्य कब बाँध लिया, जिससे यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिनधर्म की शरण और धर्म के अनुकूल वातावरण प्राप्त कर लिया? यह अनुकूलता निश्चय ही कोई महान् पुण्य का फल है, यह मौका अनन्त/ असंख्य प्राणियों में किसी एकाध को ही मिलता है जिसे हम प्राप्त करके प्रमाद में खो रहे हैं। यदि यह अवसर चूक गये तो .... "यह मानुष पर्याय सुकुल सुनिवो जिनवाणी। इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी।।" एक दिन मौका पाकर मैंने उसे यह सब समझने के लिए प्रेरित किया और प्रवचन में पहुँचने की सलाह दी तो सौभाग्य से उसने मेरी बात मान ली और प्रवचन में आना प्रारंभ किया। धीरे-धीरे उसे भी रुचि लग गई। एक दिन प्रवचन में निकला - “यह एक नियम है कि ध्यान के बिना कोई भी संसारी जीव नहीं है। कोई न कोई ध्यान प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। यदि व्यक्ति का अभिप्राय, मान्यता सही नहीं है तो उसे आर्त-रौद्रध्यान ही होते हैं, क्योंकि धर्मध्यान तो मिथ्या मान्यता में होता ही नहीं है। धर्मध्यान तो सम्यक्दृष्टि जीवों के ही होता है। सामान्य जीवों के मिथ्यात्व की भूमिका में तो निरन्तर आर्त व रौद्रध्यान ही होते हैं इनमें रौद्रध्यान जो कि पापों में आनंद मानने रूप होता है, सदा अशुभ या पाप रूप ही होता है। आर्तध्यान दुःख शोक रूप होता है, इसमें शुभ-अशुभ का भेद पड़ता है इसमें अज्ञानियों के तो अधिकतर पाप रूप परिणाम ही रहते हैं, अतः भले ही प्रगट रूप में पाप न किये हों फिर भी अभिप्राय (मान्यता) में तो निरन्तर पाप रूप ही परिणाम रहते हैं, उन्हीं में कर्मों की स्थिति व अनुभाग (फल देने की शक्ति) अधिक पड़ती है। तदनुसार जीवन में दुःख आना स्वाभाविक ही है। करणानुयोग शास्त्रानुसार जितना बीच-बीच में शुभभाव होता है उतनी राहत तो असाध्य रोगों व दुःखों के बीच में भी मिल ही जाती है, पर उस सागर जैसे दुःख में इस बूँद जैसे सांसारिक सुख का क्या मूल्य? इससे किसी प्रकार भी संसार के दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता। ऐसी स्थिति में इस जीव को सुखी होना हो तो पुण्य पाप परिणामों की पहचान के लिए जिनवाणी का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। पण्डित भागचन्दजी ठीक कहते है - अपने परिणामनि की संभाल में, तातें गाफिल मत हो प्राणी। यहाँ 'गाफिल' शब्द के दो अर्थ हैं एक तो सीधा-सादा यह कि परिणामों की संभाल में सावधान रहो, अपने शुभाशुभ परिणामों को पहचानों और अशुभ भावों से बचो। दूसरा अर्थ है कि शुभाशुभ परिणामों में ही गाफिल (मग्न) मत रहो, अपने परिणामी द्रव्य को पहचानों तभी परिणाम हमारे स्वभाव सन्मुख होंगे।" यह प्रवचन सुनते ही लक्ष्मीनन्दन को उसके प्रश्न का उत्तर तो मिल ही गया। साथ ही सन्मार्ग में अग्रसर होने की रुचि भी जागृत हो गई और वह पत्नी के साथ प्रतिदिन प्रवचन सुनने आने लगा। ॐ नमः। • पाठक प्रस्तुत कथानायक को अपने अन्तरंग में ही खोजें, आजू-बाजू में न झाँके। .परिणामों की विशेष पहचान हेतु 'इन भावों का फल क्या होगा' पुस्तक पढ़ें। (9)Page Navigation
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