Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ १४ ऐसे क्या पाप किए ! जाता हूँ, वर्ष में एक दो बार तीर्थ कर आता हूँ फिर भी कुछ नहीं...। इससे मुझे ऐसा लगता है कि मैं कहीं भूल में तो हूँ - अन्यथा यह दुःख क्यों?" - वस्तुस्थिति यह है कि अभी जीवों को पाप की भी सही पहचान नहीं है । हत्या, झूठ, चोरी, पराई माँ - बहिन-बेटी पर कुदृष्टि तो पाप है ही; परन्तु पाप-पुण्य का सम्बन्ध पर द्रव्यों से नहीं; बल्कि अपने परिणामों से होता है; अपने मिथ्या अभिप्राय से होता है, इसकी उसे खबर नहीं हैं। जगत में कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है, भला-बुरा नहीं है, फिर भी उसे भला-बुरा मानना । तथा इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें राग-द्वेष करना । ऐसे मिथ्या अभिप्राय से दिन-रात आर्तध्यान, रौद्रध्यान रूप पाप परिणामों में डूबे इस व्यक्ति को यह समझ में नहीं आता कि इष्टवियोग एवं अनिष्ट संयोगज तथा पीड़ा चिन्तन रूप आर्त्तध्यान और पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आनन्द मानना उनके संग्रह में सुख होना मानना रौद्रध्यान है और यह भी पाप है। जबकि वास्तविकता यह है कि भले ही जीवन भर इसके द्वारा एक भी प्राणी का घात न हुआ हो, एक भी शब्द असत्य न बोला हो, इसी तरह चोरी, कुशील व बाह्य परिग्रह में किंचित भी प्रवृत्ति न हुई हो परन्तु देवी-देवताओं की उपासना रूप गृहीत मिथ्यात्व के साथ उक्त मिथ्या मान्यता से इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, पीड़ा - चिन्तन रूप आर्तध्यान करता रहे, विषयानन्दी रौद्रध्यान करता रहे तो ये सब पाप ही हैं । इसीतरह अपने परिवार के प्रति प्रीत करता हुआ उसमें आनन्द मनाये, तो ये भी हिंसानंदी और परिग्रहानंदी रौद्रध्यान हैं जो पूर्णतः पाप परिणाम हैं, ये परिणाम ही दुःख के कारण हैं। पुण्य के उदय में हर्ष मानना, पाप के उदय में खेद खिन्न होना, शरीर की संभाल में लगे रहना, देह की वृद्धि में प्रसन्नता और देह की क्षीणता में अप्रसन्नता! भला इन्हें कौन पाप गिनता है? परन्तु पण्डित बनारसीदास ने इन्हें ही सप्त व्यसन जैसे महापाप में गिनाया है - (8) ऐसे क्या पाप किए ! १५ अशुभ में हार शुभ में जीत यही है द्यूतकर्म, देह की मगनताई यहै माँस भखिबो । मोह की गहल सों अजान यहैं सुरापान, कुमति की रीति गणिका को रस चखिबो ।। निर्दय है प्राण घात करबो यहै शिकार, पर-नारि संग पर - बुद्धि को परखिबो । प्यार सौं पराई सौंज गहिबे की चाह चोरी, ऐ ही सातों व्यसन विडारि ब्रह्म लखिबो || जो मिथ्या मान्यता के कारण अशुभ उदय आने पर प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी हार मानता है तथा शुभोदय में अनुकूल स्थिति में अपनी जीत मानता है; वह एक तरह से जुआरी ही है; जो हर्ष - विषाद रूप परिणाम जुआ की जीत-हार में होते हैं, वैसे ही हर्ष - विषाद के परिणाम जिसने पुण्य-पाप के उदय में किए तो फल तो परिणामों का ही मिलता है न? इस कारण जुआ में हर्ष-विषाद और पुण्य पाप के उदय से हुए हर्ष - विषाद में कोई अन्तर नहीं है। इसी तरह मांसल देह में एकत्व व ममत्वबुद्धि से एवं सुख की मान्यता से उसमें मग्न होना भी माँस खाने जैसा व्यसन ही है? शराब पीकर मूर्च्छित हुआ या मोह में मूर्च्छित दोनों में कोई अन्तर नहीं है, मूर्च्छा तो दोनों में हुई न! अतः मोही जीव का मोह भी एक प्रकार से शराब पीने जैसा व्यसन ही है। - बुद्ध या व्यभिचारणी बुद्धि वैश्या व्यसन जैसा है। निर्दय होकर किसी भी प्राणी की हिंसा में प्रवृत्ति शिकार व्यसन है तथा दूसरों की बुद्धि की परख करने को परस्त्री सेवन व्यसन कहा है। दूसरों की वस्तु रागवश ग्रहण करना चोरी व्यसन है । कवि का कहना है कि इन सात व्यसनों में सुख की मान्यता के त्यागपूर्वक आत्मा को जाना / पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार पुत्र-पुत्रियों से प्रीति करना, उनमें ममत्व रखना, उनके वियोग में दुःखी होना, देह में एकत्व रखना उसके ही संभालने में रत

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