Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ ऐसे क्या पाप किए! ऐसे क्या पाप किए ! यद्यपि उन्होंने पत्नी को हमारे प्रवचन में आने से कभी नहीं रोका, बल्कि उसकी गैर हाजरी में उसका चाय-नास्ता बनाने का काम भी स्वयं कर लेता और पत्नी को प्रवचन में जाने देता; परन्तु वह स्वयं स्वाध्याय में कभी नहीं आया, इस कारण मेरा मन उसे समझाने का नहीं होता। मैं सोचता इन्हें तत्त्व का कुछ भी अता-पता नहीं है, ऐसे व्यक्ति को मैं क्या समझाँऊ ? एक दिन वे फूट-फूट कर रोने लगे और बोले - आप दुनिया को समझाते हो। सबको दुख दूर करने का मार्गदर्शन देते हो, और आप स्वयं भी कितने सखी हो: हमें भी कोई उपाय बताओ। कोई मंत्र-तंत्र हो, कोई गंडा-ताबीज हो आप जो भी उपाय बताओगे, हम सब करेंगे? ___मुझ से भी उनका दुःख देखा नहीं गया, मेरी आँखों में भी आँसू आ गये; पर मेरी समझ नहीं आ रहा था कि घंटे-आध घंटे में उसे क्या बताऊँ ? कैसे समझाँऊ ? कोई मंत्र-तंत्र और गंडा-ताबीज विद्या तो मुझे आती भी नहीं थी, बल्कि मैं तो उसे इस पाखण्ड से बचाना चाहता था। अतः मैंने उससे कहा - "भैया! तुमने पूर्व जन्म में क्या पाप किए? यह तो मैं नहीं जानता; पर इतना अवश्य जानता हूँ कि आप वर्तमान भी पापपंक में आकण्ठ निमग्न हो । जब तक इस दल-दल से नहीं निकलोगे तब तक दुःख दूर नहीं होगा।" वह आँखें फाड़-फाड़ कर मेरी ओर देखने लगा। “क्या कहा? मैंने अपनी याददाश्त में तो ऐसा कोई पाप नहीं किया।" ऐसा कहकर वह एक-एक क्रिया कलाप गिनाने लगा। मैंने कहा – “यह सच है कि तुमने किसी की हत्या नहीं की, किसी की झूठी गवाही नहीं दी, किसी का कभी एक पैसा भी नहीं चुराया, कभी किसी की माँ-बहिन बेटी को बुरी निगाह से नहीं देखा। कभी किसी का शोषण करके अनावश्यक धन का संग्रह नहीं किया। तुमने पाँचों पापों में एक भी पाप नहीं किया। बीच में ही बात काटकर वह बोला - "फिर आपने ऐसा कैसे कहा कि मैं पाप की कीचड़ में गले तक डूबा हूँ !" दिन-रात पाप-पंक में निमग्न लोगों को यह समझाना मेरे लिए भारी पड़ रहा था, कठिन हो रहा है कि मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि वे कोई पाप भी कर रहे हैं; किन्तु करनी का फल ही तो जीवन में आता ही है अतः पाप तो उसने किया ही है, अन्यथा उसकी परिस्थिति क्यों बनती? ऐसे व्यक्तियों को यह विचार क्यों नहीं आता कि “जब संकट के बादल सिर पर मंडरा रहे हैं, चारों ओर से विपत्तियाँ घेरे हैं, तरह-तरह की मुसीबतों में फँसे हैं, नाना प्रकार की बीमारियाँ शरीर में स्थाई निवास बना चुकी हैं; तो ये सब पुण्य के फल तो हैं नहीं, कोई पाप ही किए होंगे, जिनको हम भूल गये हैं।" और भगवान से पूछने लगे कि - हे भगवान! हमने पिछले जन्म में ऐसे क्या पाप किये थे? जिनकी इतनी बड़ी सजा हमें मिल रही है। जगत के जीवों की कुछ ऐसी ही मनोवृत्ति है कि वे पाप तो हंस-हंस कर करते हैं और उनका फल भुगतना नहीं चाहते । पुण्य कार्य करते नहीं है और फल पुण्य का चाहते हैं। वस्तुतः जीवों को पुण्य-पाप के परिणामों की पहचान ही नहीं है, पापबन्ध कैसे होता है, पुण्यबंध कैसे होता है, इसका पता ही नहीं है। वे बाहर में होती हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि को ही पाप समझते हैं, आत्मा में हो रहे खोटे भावों को पाप ही नहीं मानते । यही सबसे बड़ी भूल हैं, जिसे अज्ञानी नहीं जानता। इसी कारण दुःख के ही बादल मंडराते रहते हैं जब क्षणभर को भी तो शान्ति नहीं मिलती तो भगवान से पूछता है भगवन्! यह कैसी विडम्बना है? लक्ष्मीनन्दन मन ही मन कहता है - "लोग कहते हैं पुण्य करो, धर्म करो, सुख होगा मैंने जीवन भर अपने कर्तव्य का पालन कर पुण्य ही तो किया, पाप बिल्कुल भी नहीं किया, फिर भी यह सब क्या चक्कर है? इसके सिवा और पुण्य क्या होता है? धर्म क्या होता है? कुछ समझ में नहीं आता । यद्यपि मैं रोज देवी की पूजा करता हूँ, घी के दीपक की ज्योत (7)

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