Book Title: Agamoddharak Kruti Sandohasya Part 06
Author(s): Manikyasagarsuri
Publisher: Mithabhai Kalyanchandji Pedhi
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________________ जिन - महिमा विधेऽत्र कोऽपोश! न जीवभावो, विहत्य प्राणान् श्रतिमुख्यसारान् भवास्तुपाणैईशभिर्वियुक्तः सदासि धर्ता विविधांस्तु तान् कृती // चैतन्यशक्तेर्जिन ! जन्तुजाते मानं त्वयोक्तं निजयोगमानात् / व्यवहारमार्गागतपार्थिवादा-वत्यन्तचैतन्ययतोऽस्ययोगी॥२८॥ तेषां हि पापप्रचयस्य भीन, ये स्युस्सदा संवरयोगनिष्ठाः / असंवास्त्वं कथमाप्त ! हीनः, पापाणुभिः सर्वमनेहसं शमी // 29 समस्तकावलितो न तस्य, भयं जिनेन्द्रोदितमार्गगो यः। विमुक्तमार्गोऽसि विलीनकर्मा, जिन ! त्वदन्यो नहि कोपि मह्यां। जिन ! त्वदाज्ञाविमुखोऽङ्गवारी, यज्येत पापप्रचयेन नित्यम् / चिन्तोक्तिकायैरपि नो प्रवृत्तो, विभो ! अनाज्ञोऽसि कथं निरंहाः त्वया समक्षं विदुषां निवेदितं, परस्परं जीवगणः समस्तः / सम्बद्ध (र्वी निखिलैनियोगै व थैतदेषो हि जिनेन्द्रदेवः // 32 // वित्तोऽसि विश्वज्ञतया विभो ! त्वं, सत्यं नु चेदाऽऽसमहं त्वदीशः। दीनत्वपूर्ण न हि वीक्षसे मां, भवाङ गणे यन्न समुद्दिधीर्षा // 33 सार्वज्यबन्धोऽवितथोक्तिभावे,त्ययाऽऽस्थिता मे व्यसनोद्ध तिः पुरा वारानमेयानधुना भवाब्धौ व इन्तमहन्न हि पासि दीनम् // 34 // विभोऽसि साझ्यपदेऽमले यदि, मां दावदग्धं किम नेक्षसे त्वम् चेद्वोत्सि मां तद्विधमात्मशक्तितो नरक्षसि त्यक्तदयोऽसि किं विभो! वज्राभाः शरणं श्रिते कृतधियो नीतिस्त्वयं साविकी, त्वं मेऽमेयभवान् श्रितोऽसि शरणार्थित्वैकमत्योत्तमः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.Scanned by CamScanner Trust

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