Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar
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तो वो स्वीकार करी मारी विडंबना शामाटे करी ? अथवा तो मारो ज दोष छे के जेथी दुर्लभ एवा पण तमारे विषे में राग कयों. कामडी हंसने विषे जे राग करे तेमां कागडीनो ज दोष छे. हे नाथ ! तमे मारो स्वीकार करीने मने मूकी दीधी, तेथी मारुं रूप, फळाकुशळता, लावएप, यौवन ने कुछ विगेरे सर्व निष्फळ थयुं. हे कांत ! तमारा त्रियोगनी व्यथाथी जाणे मारा प्राण नीकळी जता होय, जागे मार्क हृदय फाटी जतुं होय अन जाणे मारुं शरीर बळी जतुं होय एवी हु थइ . हे स्वामी ! तमे जे प्रकारे पशुओने विषे दयाळु थया, ते ज रीते मारापर दयालु थाओ. तमारी जेवा महात्माने पंक्तिभेद करवो योग्य नथी. हे प्रभु ! तमारे विषे रागी थयेली मने एक ज वार दृष्टिवडे अने वाणीवडे प्रसन्न करो. स्वाद कर्या विना मीठा के कडवा फळने कोण जाणी शके ? अथवा तो सिद्धिरूपी चहुने वरवा उत्सुक थयेला तमारा मानने इंद्राणी पण हरण करी शकती नथी, तो हुं मनुष्यरूपी कीटिका तो कह गणतरीमां होउं १ "
आ प्रमाणे विलाप करती राजीमतीने सखीओए क के - " हे सखी ! रोइश नहीं. ते नीरस ने महा कठोर के, तेने जया दे. बीजा घणा यदुकुमारो मनोहर रूपवाळा छे, तेमांथी कोइ योग्यने वरजे. " ते सांभळी पोताना कान बे हाथवडे ढांकी दहने राजीमती बोली के--" हे सखीयो ! तमे सामान्य जनने उचित एवं पण उत्तमने अनुचित एवं वचन केम बोलो यो ? जो कदाच रात्रिए सूर्यनो उदय धाय, के अन्ति शीतळ धाय, तोपण श्रीनेमिने मूकीने बीजा बरने हुं नहीं वरुं. जो विवाह विषे मारा हाथपर नेमिनो हाथ नथी थयो तो दीक्षा ग्रहण करती वखते माहा मस्तकपर तेनो हाथ थशे. " ते सांभळी सखीश्रो बोली के--" हे शुभ श्राशयवाळी ! दारो आ विचार अति उत्तम के. " पछी ते सती