Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar
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प्रथम विनयाधरणजसमाय. १ ......पतरा, तह य निमित्तम्मि होइ पडिसेवी । " एएहि कारणेहिं, आसुरिभं भावणं कुणइ ॥ २६४ ॥ अर्थ-(अणुवडरोसपसरो ) निरंतर क्रोधनो प्रचार छ जेने ( तह य ) तथा ( निमित्तम्मि ) अतीतादिक निमित्तने । विषे ( पडिसेवी ) सेवा करनारा ( होइ ) जे होय ते (एएहि कारणेहि ) आ कारणोए करीने (प्रासुरिनं मावलं) आसुरी | मावनाने ( कुणइ ) करे छे. २६४.
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलप्पवेसो भ।
प्रणयारभंडसेवा, जम्मणमरणाणि बंधति ॥ २६५ ॥ अर्थ-( सस्थम्गहणं ) जे पात्मवात करवा माटे शस्त्रने ग्रहण करे, (विसझक्खणं च) विषभक्षण करे, (जलणं च ) अग्निप्रवेश करे, ( जलप्पवेसो भ) जळमां प्रवेश करे, चशब्दथी भृगुपातादिक करे तथा जे (अणायारभंडसेवा ) हस्या | मोहादिके करीने अनाचार एटले शास्त्रमा नहीं कहेला भोडनी एटले उपकरणनी सेवा करे, ते ( जम्मणमरणाणि ) जन्म मरणोने एटले अनेक जन्म मरण थाय तेवा कर्मोने (बंधति ) वांधे छे. शस्त्रग्रहणादिक संक्लेशनुं कारण होवाथी अनंत भवनुं कारण थाय छे. आम कहेबाथी पांचमी मोह भावना कही. २६५.
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