Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar

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Page 780
________________ | सम्मंदसणरत्ता, अनिशाणा सुकलेसमोगाढाई जे मांति जीवा, सुगमा नि भवे बोही ॥२५६॥ ___ अर्थ-( सम्मदंसणरत्ता ) सम्यम् दर्शना रक्त, (अनिआणा) नियाणा रहित अने (सुक्कलेसमोगाढा) शुकलेश्याथी व्याप्त ( इइ) एवा प्रकारना (जे जीवा ) जे जीयो ( मरति ) मरे के, (तेसि ) तेमने ( बोही ) जिनधर्मनी प्राप्ति (सुलभा) सुलभ ( भवे ) थाय छे. २५६. मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। इअ जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥२५७॥ ___अर्थ-(मिच्छादसणरत्ता ) मिथ्यादर्शनमा रक्त, ( सनिआणा ) नियाणा सहित अने (कण्हलेसमोगाढा ) कृष्णKE लेश्याने पामेला ( इन) आवा नकारना (जे जीवा ) जे जीवो ( मरंति) मरे के, (तेसिं) तेस्रोने (पुण ) फरीथी (योही ) जिनधर्मनी प्राप्ति ( दुल्लहा ) दुर्लभ छे. २५७. . जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, तेहोति परित्तसंसारी ॥ २५८ ॥ ___ अर्थ-( जिणवयणे ) जिनेश्वरना वचनने विषे ( अणुरत्ता ) प्रीतिवाळा (जे) जे जीवो (जिणवयणं ) जिनेश्वरना जनने-याज्ञाने ( भावणं) भावथी ( करिति ) करे छे-ते प्रमाणे वर्ने छ (ते ) तेश्रो (अमला) मिथ्यात्वादिक मक रहित अने (संक्रिलिट्टा) रागादिक संक्लेश रहित एचा सता (परित्तसंसारी) परिमित-अन्य संसारवाळा हाति) थाय छे. २५८.

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