Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar

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Page 755
________________ अर्थ-तेने उत्कृष्ट अंतर अनंत काळर्नु छ भने जघन्य अंतर कोइ जीव नरकमाथी उद्धरी गर्भज पर्याप्त मत्स्यने विषेश उत्पन्न थइ अंतर्मुहूतेनुं आयुष्य पूर्ण करी क्लिष्ट अध्यवसायने लीधे नरकमांज उत्पन्न थाय त्यारे अंतर्मुहूर्तनुं पडे छे. १६८. । एएसिं वपणओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥१६९।। अर्थ-पूर्ववत्. १६६. हवे तिर्यचनी प्ररूपणा करे छे.पंचिंदिअतिरिक्खा उ, दुविहा ते विवाहिआ । समुच्छिमतिरिक्खा य, गब्भवतिआ तहा ॥१७॥ यर्थ-(पंचिदिअतिरिक्खा उ) जे पंचेंद्रिय तियेचो के, (ते ) ते (दुविहा ) ये प्रकारना ( विवाहिया) कला छे. ते आ प्रमाणे.-(समुच्छिमतिरिक्खा य) संमूर्छिम तिर्यच (गम्भवतिभा तहा) तथा गभेने विषे व्युत्क्राति एटर | उत्पत्ति छ जेनी एचा अर्थात् गर्भज तिथंच. १७०. दुविहा वि ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा। खयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१७१॥ मर्थ---( दुविहा वि) ने प्रकारना एवा पण ( से ) ते ( तिचिहा ) मा त्रण प्रकारना ( भवे ) होय छे. ते भा प्रमाणे. (जलयरा) जळचर, ( थलयरा) स्थळचर, (तहा) तथा (खड्यराय) खेचर, पत्रण प्रकारना ( बोधवा) जाणवा. (तेसि ) तेमना ( भेए) भेदो ( मे ) मारी पासे । सुणेह ) सांभळो. १७१. प्रथम जळचर जीवोना भेद कहे के.

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