Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar

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Page 737
________________ अर्थ-(पुढवीजीवाण ) पृथ्वीकायना जीयोने ( सए काए ) पोतानी काय ( विजम्मि ) तज्या पछी ( उक्कोसं ) उत्कृष्टथी ( असंतकाल , असंण्याचा पुड परावर्चनरूप अनंतकाळनुं अने ( जहाग ) जवन्यथी ( अंतोमुहुतं ) अंतमहतनुं ( अंतरं ) आंतरं होय छे. तेटलो काळ अन्य जातिमा भमीने त्यारपछी पृथ्वी कायने विषे फरीथी आवे छे. (जो * मोक्षमा न जाय तो. एम सर्वत्र जाणवं. ) ८२. हवे भावी पृथ्वीकायनी प्ररूपणा करे छे.एएसिं वाओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥३॥ __ अर्थ-(एएसि ) ते पृथ्वीकाय जीवोना (वस्पो चेव) वर्णथी, (गंधओ) गंधथी, (रसफासओ) रसी, स्पर्शथी, ॐ (वावि ) तथा वळी ( संठाणादेसमो) संस्थानना प्रकारथी ( सहस्ससो) हजारो (विहाणाई ) मेदो छे. अर्थात् वर्णा| दिकनी तरतमताथी असंख्य मेदो थाय छे. ८३. हवे अपकाय विषे कहे छे.दुविहा श्राउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो ।। ८४ ॥ अर्थ-(आउजीवा उ ) अप्कायना जीवो ( दुविहा ) चे प्रकारना छे. सूक्ष्म तेम जं बादर. अने ए बने पाला पर्याप्त * अने अपर्याप्त एम चे प्रकारना छे. ८४.

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