Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Kunvarji Anandji Shah
Publisher: Kunvarji Anandji Shah Bhavnagar
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अर्थ - पूर्ववत् १४० - १४४. हवे चतुरिंद्रिय कहे छे.
चाउरिंदिश्रा उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिथा । पज्जत्तमपजता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १४५ ॥ अर्थ - पूर्ववत्. १४५.
अधिया पोत्तिथा चैव मच्छिश्रा मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे अ, ढिकुणे कुंकु तहा ॥ १४६ ॥ कुकुडे सिंगिरीडी श्र, नंदावत्ते विच्छिए । डोले भिंगिरीडी अ, विरिली अच्छिवेध ॥ १४७॥ अच्छिले माह अच्छि - रोडए चित्तपत्तए । ओहिंजलिश्रा जलकारि श्रनीश्रा तंषगा विश्र ॥१४८॥
व गंधथो रसफासओ । संठायादेश्रो वावि, विहाणाई सहस्सो ॥ १४४ ॥
अर्थ – (अंधि) अधिक जातिना जीव, (पोत्तिमा चेत्र ) पौतिक, ( मच्छि ) मक्षिका, ( मसगा ) मशक -- मच्छर, ( तहा ) तथा (ममरे) अमर, (कीडगे) कीट, पतंगीयुं, ( अ ) तथा ( ढिकुणे ) टिंकुण-चगाइ, ( कुंकु कुंका, ( तहा) तथा (कुकुडे) कुर्कुट, ( सिंगिरीडी अ ) शृंगटी, (नंदावते अ ) नंदावर्त, ( विच्छिए ) बींधी, ( डोले ) ढोल-खडमाकडी, ( भिंगिरीडी का ) भृंगरीटक, ( विरिली ) विरली, ( अधिर ) अधीवेधक, (अच्छिले ) अक्षिल,
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