Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्राण-वध का स्वरूप]
णिक्कलुणो २० णिरयवासगमणनिधणो २१ मोहमहन्भयपयट्टयो २२ मरणवेमणस्सो। एस पढमं अहम्मदारं ॥१॥
२-जिनेश्वर भगवान् ने प्राणवध को इस प्रकार कहा है-यथा (१) पाप (२) चण्ड (३) रुद्र, (४) क्षुद्र (५) साहसिक (६) अनार्य (७) निघृण (८) नृशंस (९) महाभय (१०) प्रतिभय (११) अतिभय (१२) भापनक (१३) त्रासनक (१४) अनार्य (१५) उद्वेगजनक (१६) निरपेक्ष (१७) निर्धर्म (१८) निष्पिपास (१९) निष्करुण (२०) नरकवास गमन-निधन (२१) मोहमहाभय प्रवर्तक (२२) मरणवैमनस्य, इति प्रथम अधर्म-द्वार ।
विवेचन-कारण-कार्य की परंपरानुसार अर्थात् सत्कार्यवाद के चिंतनानुसार कार्य का अस्तित्व केवल अभिव्यक्तिकाल में ही नहीं अपित कारण के रूप में, अतीत में और परिणाम के रूप में भविष्य में भी रहता है।
हिंसा क्षणिक घटना नहीं है, हिंसक कृत्य दृश्यकाल में अभिव्यक्त होता है, पर उसके उपादान अतीत में एवं कृत्य के परिणाम के रूप में वह भविष्य में भी व्याप्त रहती है । अर्थात् उसका प्रभाव त्रैकालिक होता है।
___कार्यनिष्पत्ति के लिए उपादान के समकक्ष ही निमित्तकारण की भी आवश्यकता होती है। उपादान. आत्मनिष्ठ कारण है। निमित्त, परिवेष, उत्तेजक, उद्दीपक एवं साधनरूप है । वह बाहर स्थित होता है । आश्रव–हिंसा का मौलिक स्वरूप उपादान में ही स्पष्ट होता है। प्राश्रव का उपादात चैतन्य की विभाव परिणति है। निमित्तसापेक्षता के कारण वैभाविक परिणति में वैविध्य आता है । स्वरूपसूचक नामों का विषय है दृश्य-अभिव्यक्ति कालीन हिंसा के विविध आयामों को अभिव्यक्त करना । हिंसा के स्वरूपसूचक ग्रंथकार द्वारा निर्दिष्ट कई विशेषण प्रसिद्ध हिंसाप्रवृत्ति के प्रतिपादक हैं, किंतु कई नाम हिंसा की अप्रसिद्ध प्रवृत्ति को प्रकाशित करते हैं। इन नामों का अभिप्राय इस प्रकार है
(१). पाव-पापकर्म के बन्ध का कारण होने से यह पाप-रूप है।
(२) चंडो-जब जीव कषाय के भड़कने से उग्र हो जाता है, तब प्राणवध करता है, अतएव यह चण्ड है।
(३) रुद्दो-हिंसा करते समय जीव रौद्र-परिणाम बन जाता है, अतएव हिंसा रुद्र है ।
(४) खुत्तो—सरसरी तौर पर देखने से क्षुद्र व्यक्ति हिंसक नजर नहीं आता । वह सहिष्णु, प्रतीकार प्रवृत्ति से शून्य नजर आता है। मनोविज्ञान के अनुसार क्षुद्रता के जनक हैं दुर्बलता, कायरता एवं संकीर्णता । क्षुद्र अन्य के उत्कर्ष से ईर्ष्या करता है । प्रतीकार की भावना, शत्रुता की भावना उसका स्थायी भाव है । प्रगति का सामर्थ्य न होने के कारण वह अन्तर्मानस में प्रतिक्रियावादी होता है । प्रतिक्रिया का मूल है असहिष्णुता । असहिष्णुता व्यक्ति को संकीर्ण बनाती है । अहिंसा का उद्गम सर्वजगजीव के प्रति वात्सल्यभाव है और हिंसा का उद्गम अपने और परायेपन की भावना है।
संकीर्णता की विचारधारा व्यक्ति को चिंतन की समदृष्टि से व्यष्टि में केन्द्रित करती है।
१-पाठान्तर-पवड्ढो