Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : भु. २, मे. १
संवर:', अर्थात् जिसके द्वारा आने वाले कर्म संवृत कर दिए जाते - रोक दिए जाते हैं, वह संवर है ।
सरलतापूर्वक संवर का अर्थ समझाने के लिए एक प्रसिद्ध उदाहरण की योजना की गई है । वह इस प्रकार है - एक नौका अथाह समुद्र में स्थित है। नौका में गड़बड़ होने से कुछ छिद्र हो गए और समुद्र का जल नौका में प्रवेश करने लगा । उस जल के आगमन को रोका न जाए तो जल के भार के कारण वह डूब जाएगी। मगर चतुर नाविक ने उन छिद्रों को देख कर उन्हें बंद कर दिया । नौका के डूबने की आशंका समाप्त हो गई। अब वह सकुशल किनारे लग जाएगी। इसी प्रकार इस संसार-सागर में कर्म - वर्गणा रूपी प्रथाह जल भरा है, अर्थात् सम्पूर्ण लोक में अनन्त अनन्त कार्मणवर्गणाओं के सूक्ष्म दृश्य पुद् गल ठसाठस भरे हैं । उसमें श्रात्मारूपी नौका स्थित है। हिंसा आदि आस्रवरूपी छिद्रों के द्वारा उनमें कर्मरूपी जल भर रहा है । यदि उस जल को रोका न जाए तो कर्मों के भार से वह डूब जाएगी - संसार में परिभ्रमण करेगी और नरकादि अधोगति में जाएगी। मगर विवेकरूपी नाविक कर्मागमन के कारणों को देखता है और उन्हें बंद कर देता है, अर्थात् श्रहिंसा आदि के आचरण से हिंसादि आस्रवों को रोक देता है । जब श्रास्रव रुक जाते हैं, कर्मबन्ध के कारण समाप्त हो जाते हैं तो कर्मों का नवीन बन्ध रुक जाता है और आत्मारूपी नौका सही-सलामत संसार से पार पहुंच जाती है ।
यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि नवीन पानी के आगमन को रोकने के साथ नौका जो जल पहले भर चुका है, उसे उलीच कर हटा देना पड़ता है। इसी प्रकार जो कर्म पहले बँध चुके हैं, उन्हें निर्जरा द्वारा नष्ट करना आवश्यक है । किन्तु यह क्रिया संवर का नहीं, निर्जरा का विषय है । यहाँ केवल संवर का ही प्रतिपादन है, जिसका विषय नये सिरे से कर्मों के आगमन को रोक देना है ।
संवर की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा के साथ सूत्रकार ने प्रथम गाथा में दो महत्त्वपूर्ण बातों का भी उल्लेख किया है । 'जह भणियाणि भगवया' अर्थात् भगवान् ने संवर का स्वरूप जैसा कहा है, वैसा ही मैं कहूँगा । इस कथन से सूत्रकार ने दो तथ्य प्रकट कर दिए हैं। प्रथम यह कि जो कथन किया जाने वाला है वह स्वमनीषिका कल्पित नहीं है । सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा कथित है । इससे प्रस्तुत कथन की प्रामाणिकता द्योतित की है। साथ ही अपनी लघुता नम्रता भी व्यक्त कर
है ।
'सव्वदुक्खविमोक्खट्टाए' इस पद के द्वारा अपने कथन का उद्देश्य प्रकट किया है । संसार के समस्त प्राणी दुःख से बचना चाहते हैं । जो भी कार्य किया जाता है, उसका लक्ष्य दुःख से मुक्ति पाना ही होता है । यह अलग बात है कि अधिकांश प्राणी अपने विवेक के अतिरेक के कारण दुःख से बचने के लिए ऐसे उपाय करते हैं, जिनके कारण दुःख की अधिकाधिक वृद्धि होती है । फिर भी लक्ष्य तो दुःख से बचाव करना ही होता है ।
समस्त दुःखों से छुटकारा पाने का अमोघ उपाय समस्त कर्मों से रहित शुद्ध श्रात्मस्वरूप को प्राप्त करना है और प्राप्त करने के लिए संवर की आराधना करना अनिवार्य है । जब तक नवीन कर्मों के आगमन को रोका न जाए तब तक कर्म-प्रवाह श्रात्मा में श्राता ही रहता है । इस तथ्य को सूचित करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है कि संवरद्वारों का प्ररूपण करने का प्रयोजन सर्व दुःखों विमोक्षण है, क्योंकि उन्हें यथार्थ रूप से जाने विना उनकी साधना नहीं की जा सकती ।