Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 297
________________ २६०] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अं. ५ की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, और स्व-परहित का विघात नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तल्लीनचित्त नहीं होना चाहिए, उनमें सन्तोषानुभूति नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, यहाँ तक कि उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोज्ञ एवं पापक- प्रसुहावने स्पर्शों को छूकर ( रुष्ट - द्विष्ट नहीं होना चाहिए |) ( प्र . ) वे स्पर्श कौन से हैं ? (उ.) वध, बन्धन, ताड़न - थप्पड़ यादि का प्रहार, अंकन - तपाई हुई सलाई आदि से शरीर को दागना, अधिक भार का लादा जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, शरीर में सुई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, लाख के रस, नमकीन (क्षार) तैल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण लोहे से शरीर का सींचा जाना, काष्ठ के खोड़े में डाला जाना, डोरी के निगढ़ बन्धन से बाँध जाना, Traiड़याँ पहनाई जाना, कुभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, शेफत्रोटन लिंगच्छेद, बाँध कर ऊपर से लटकाना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पैर से कुचला जाना, हाथ-पैर - कान-नाक- होठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश - नेत्र-हृदय-दांत या प्रांत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता जाना, बेत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एड़ी, घुटना या पाषाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, कपिकच्छू – प्रत्यन्त खुजली होना अथवा खुजली उत्पन्न करने वाले फल--करेंच का स्पर्श होना, अग्नि का स्पर्श, बिच्छू के डंक का, वायु का, धूप का या डांस-मच्छरों का स्पर्श होना, दुष्ट - दोषयुक्त - कष्टजनक ग्रासन, स्वाध्यायभूमि में तथा दुगन्धमय, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पर्शो में और इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ स्पर्शो में साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए, उनकी हीलना नहीं करनी चाहिए, निन्दा और गर्हा नहीं करनी चाहिए, खिसना नहीं करनी चाहिए, अशुभ स्पर्श वाले द्रव्य का छेदन-भेदन नहीं करना चाहिए, स्व-पर का हनन नहीं करना चाहिए । स्व-पर में घृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियसंवर की भावना से भावित अन्तःकरण वाला, मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुकूल और प्रतिकूल स्पर्शो की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और काय से गुप्त होता है । इस भाँति साधु संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे । पंचम संवरद्वार का उपसंहार १७० - एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होई सुप्पणिहियं इमेहि पंचहि पि कारणेह मणवय काय परिरक्खि हि । णिच्चं श्रामरणंतं च एस जोगो णेयव्वो धिमया महमया, श्रणासवो कलुसो च्छो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुष्णाश्रो । एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं श्रणुपालियं प्राणाए प्राराहियं भवइ' । एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं प्राघवियं सुसि पत्थं । त्ति बेमि । ॥ पंचमं संवरदारं समत्तं ॥ १. वाचनान्तर में उपलब्ध पाठ इस प्रकार है - " एयाणि पंचाणि सुव्वय महव्वयाणि लोगधिइकरणाणि, सुयसागरदेसियाणि संजमसीलव्वयसच्चज्जवमयाणि णरयतिरियदेव मणु यगइ विवज् जगाणि सव्वजिणसासणाणि कम्मरयवियारयाणि भवसयविमोयगाणि दुक्खसयविणासगाणि सुक्ख सयपवत्तयाणि कापुरिससुदुरुत्तराणि सत्पुरिसजणतीरियाणि णिव्वाणगमणजाणाणि कहियाणि सग्गपवायगाणि पंचावि महत्वयाणि कहियाणि ।”

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