Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्रौपदी ]
द्रौपदी
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कांपिल्यपुर में द्रुपद नाम का राजा था, उनकी रानी का नाम चुलनी था। उसके एक पुत्र और एक पुत्री थी । पुत्र का नाम धृष्टद्य ुम्न और पुत्री का नाम था द्रोपदी । उसके विवाहयोग्य होने पर राजा द्रुपद ने योग्य वर चुनने के लिए स्वयंवरमंडप की रचना करवाई तथा सभी देशों के राजामहाराजाओं को स्वयंवर के लिए आमन्त्रित किया । हस्तिनापुर के राजा पाण्डु के पाँचों पुत्र - युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव भी उस स्वयंवर - मंडप में पहुँचे । मंडप में उपस्थित सभी राजाओं और राजपुत्रों को सम्बोधित करते हुए द्रुपद राजा ने प्रतिज्ञा की घोषणा की 'यह जो सामने वेधयंत्र लगाया गया है, उसके द्वारा तीव्र गति से घूमती हुई ऊपर यंत्रस्थ मछली का प्रतिविम्ब नीचे रखी हुई कड़ाही के तेल में भी घूम रहा है । जो वीर नीचे प्रतिविम्ब को देखते हुए धनुष से उस मछली का ( लक्ष्य का) वेध कर देगा, उसी के गले में द्रौपदी वरमाला डालेगी ।'
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उपस्थित सभी राजाओं ने अपना-अपना हस्तकौशल दिखाया, लेकिन कोई भी मत्स्यवेध करने में सफल न हो सका । अन्त में पांडवों की बारी आई। अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की आज्ञा मिलने पर धनुर्विद्याविशारद अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठाया और तत्काल लक्ष्य वेध कर दिया । अपने कार्य में सफल होते ही अर्जुन के जयनाद से सभामंडप गूंज उठा। राजा द्रुपद ने भी अत्यन्त हर्षित होकर द्रौपदी को अर्जुन के गले में वरमाला डालने की आज्ञा दी । द्रौपदी अपनी दासी के साथ मंडप में उपस्थित थी । वह अर्जुन के गले में ही माला डालने जा रही थी, किन्तु पूर्वकृत निदान के प्रभाव से दैवयोगात् वह माला पाँचों भाईयों के गले में जा पड़ी । इस प्रकार पूर्वकृतकर्मानुसार द्रौपदी के युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि पाँच पति कहलाए ।
एक समय पाण्डु राजा राजसभा के सिंहासन पर बैठे थे । उनके पास ही कुन्ती महारानी बैठी थी और युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई भी बैठे हुए थे । द्रौपदी भी वहीं थी। तभी आकाश से उतर कर देवर्षि नारद सभा में आए। राजा आदि ने तुरन्त खड़े होकर नारद ऋषि का आदर-सम्मान किया । लेकिन द्रौपदी किसी कारणवश उनका उचित सम्मान न कर सकी । इस पर नारद का पारा गर्म हो गया । उन्होंने द्रौपदी द्वारा किए हुए इस अपमान का बदला लेने की ठान ली। उन्होंने सोचा - "द्रौपदी को अपने पर बड़ा गर्व है । इसके इस गर्व को चूर-चूर न कर दिखाऊँ तो मेरा नाम नारद ही क्या ?"
वे इस दृढ़संकल्पनानुसार मन ही मन द्रौपदी को नीचा दिखाने की योजना बनाकर वहाँ से चल दिए । देश-देशान्तर घूमते हुए नारदजी धातकीखण्ड के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की राजधानी अमरकंका नगरी में पहुँचे । वहाँ के राजा पद्मनाभ ने नारदजी को अपनी राजसभा में प्राये देखकर उनका बहुत आदर-सत्कार किया, कुशलक्षेम पूछने के बाद राजा ने नारदजी से पूछा - "ऋषिवर ! आप की सर्वत्र अबाधित गति है । आपको किसी भी जगह जाने की रोक-टोक नहीं है । इसलिए यह बताइये कि सुन्दरियों से भरे मेरे अन्तःपुर जैसा और कहीं कोई अन्तःपुर आपने देखा है ?
"
यह सुनकर नारदजी हँस पड़े और बोले - "राजन् ! तू अपनी नारियों के सौन्दर्य का वृथा गर्व करता है । तेरे अन्तःपुर में द्रौपदी सरीखी कोई सुन्दरी नहीं है। सच कहूँ तो, द्रौपदी के पैर th अंगूठे की बराबरी भी ये नहीं कर सकतीं ।"