Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 217
________________ १८० [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. १ पंचमी भावना : आदान-निक्षेपणसमिति ११७ - पंचमं प्रायाणणिक्खेवणसमिई-पीढ-फलग-सिज्जा-संथारग-वत्थ-पत्त-कंबल-दंडग-रयहरण-चोलपट्टग-मुहपोत्तिय-पायपुछणाई एवं पि संजमस्स उवबूहणट्टयाए वायातव-दंसमसग सीयपरिरक्खणट्टयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजमेणं णिच्चं पडिलेहण-पप्फोडण-पमज्जणयाए अहो य रामो य अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खियव्वं च गिव्हियव्वं च भायणभंडोवहिउवगरणं एवं आयाणभंडणिक्खेवणासमिइजोगेण भावियो भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू। ११७-अहिंसा महाव्रत की पाँचवीं भावना आदान-निक्षेपणसमिति है। इस का स्वरूप इस प्रकार है-संयम के उपकरण पीठ-पीढ़ा, चौकी, फलक पाट, शय्या सोने का आसन, संस्तारकघास का बिछौना, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका, पादपोंछन--पैर-पोंछने का वस्त्रखण्ड, ये अथवा इनके अतिरिक्त उपकरण संयम की रक्षा या वृद्धि के उद्देश्य से तथा पवन, धूप, डांस, मच्छर और शीत आदि से शरीर की रक्षा के लिए धारण-ग्रहण करना चाहिए। (शोभावृद्धि आदि किसो अन्य प्रयोजन से नहीं) । साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, प्रस्फोटन-झटकारने और प्रमार्जन करने में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन—पात्र, भाण्ड-मिट्टी के वरतन, उपधि-वस्त्र तथा अन्य उपकरणों को यतनापूर्वक रक्खे या उठाए। इस प्रकार आदान-निक्षेपणसमिति के योग से भावित अन्तरात्मा-अन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा अखण्ड–निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त अहिंसक संयमशील सुसाधु होता है अथवा ऐसा सुसाधु ही अहिंसक होता है। विवेचन-उल्लिखित पंचभावना सम्बन्धी पाठ में अहिंसा महाव्रत के परिपूर्ण पालन के लिए आवश्यक पाँच भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है और यह स्पष्ट किया है कि इन भावनाओं के अनुसार आचरण करने वाला ही पूर्ण अहिंसक हो सकता है, वही सुसाधु कहलाने योग्य है, वही चारित्र को निर्मल-निरतिचार रूप से पालल कर सकता है। मूल पाठ में साधू की भिक्षाचर्या का विशद वर्णन किया गया है। उसका आशय सरलता पूर्वक समझा जा सकता है, अतएव उसके लिए अधिक विवेचन की आवश्यकता नहीं। अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ पाँच समितियों के नाम से कही गई प्रसिद्ध हैं । प्रथम भावना ईर्यासमिति है । साधु को अनेक प्रयोजनों से गमनागमन करना पड़ता है । किन्तु उसका गमनागमन विशिष्ट विधि के अनुसार होना चाहिए। गमन करते समय उसे अपने महाव्रत को ध्यान में रखना चाहिए और पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक स्थावर जीवों को तथा कीड़ा-मकोड़ा आदि छोटे-मोटे त्रस जीवों को किचिन्मात्र भी आघात न लगे, उनकी विराधना न हो जाए, इस अोर सतत सावधान रहना चाहिए। ऐसी सावधानी रखने वाला साधु पर-विराधना से बच जाता है, साथ ही आत्मविराधना से भी बचता है। असावधानी से चलने वाला साधु आत्मविराधक भी हो सकता है। कण्टक, कंकर आदि के चुभने से, गड़हे में गिर जाने से,

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