Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ब्रह्मचर्यविघातक निमित्त
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आराधक को नरक-तिर्यंचगति से बचाता है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलने वाला है ।
विवेचन-तीर्थंकर भगवान् ने ब्रह्मचर्यव्रत को निर्दोष पालने के लिए अचूक उपाय भी प्रदर्शित किये हैं और वे उपाय हैं गुप्ति आदि । नौ वाडों का भी इनमें समावेश होता है। इनके अभाव में ब्रह्मचर्य की आराधना नहीं हो सकती।
इस गाथा में यह भी स्पष्ट कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का निर्मल रूप से पालन करने वाला सिद्धि प्राप्त करता है । यदि उसके कर्म कुछ अवशेष रह गए हों तो वह वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। . १४५-देव-रिंद-णमंसियपूर्य, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं ।
दुद्धरिसं गुणणायगमेक्कं, मोक्खपहस्स वडिसगभूयं ॥३॥ १४५-देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत हैं, अर्थात् देवेन्द्र और नरेन्द्र जिनका नमस्कार करते हैं, उन महापुरुषों के लिए भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है। यह जगत् के सब मंगलों का मार्ग-उपाय है अथवा प्रधान उपाय है। यह दुर्द्धर्ष है, अर्थात् कोई इसका पराभव नहीं कर सकता, या दुष्कर है । यह गुणों का अद्वितीय नायक है। अर्थात् ब्रह्मचर्य हो ऐसा साधन है जो अन्य सभी सद्गुणों की ओर आराधक को प्रेरित करता है।
विवेचन-आशय स्पष्ट है । यहाँ ब्रह्मचर्य महाव्रत की महिमा प्रदर्शित की गई है। इस महिमा वर्णन से इस व्रत की महत्ता भलिभाँति विदित हो जाती है । आगे भी ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित किया जा रहा है। ब्रह्मचर्यविघातक निमित्त
१४६-जेण सुद्धचरियण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू स इसी स मुणी स संजए स एव भिक्खु जो शुद्ध चरइ बंभचेरं । इमं च रइ-राग-दोस-मोह-पवडणकरं किमज्झ-पमायदोसपासत्थ-सीलकरणं अभंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्ख-सीस-कर-चरण वयण-धोवण-संबाहण-गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चुण्णवास-धुवण-सरीर-परिमंडण- बाउसिय-हसिय-भणिय-णट्ट-गीय-वाइय-णडगट्टग-जल्ल-मल्ल-पेच्छणवेलंबगं जाणि य सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमाइयाणि तक-संजमबंभचेर-घाग्रोवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जियव्वाइं सव्ववालं ।
१४६–ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण-यथार्थ नाम वाला, सुश्रमण-सच्चा तपस्वी और सुसाधु-निर्वाण साधक वास्तविक साधु कहा जाता है । जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि अर्थात् यथार्थ तत्त्वद्रष्टा है, वही मुनि-तत्त्व का वास्तविक मनन करने वाला है, वही संयत–संयमवान् है और वही सच्चा भिक्षु-निर्दोष भिक्षाजीवी है।
ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन आगे कहे जाने वाले व्यवहारों का त्याग करना चाहिए-रति-इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग, राग-परिवारिक जनों के प्रति स्नेह, द्वेष और