Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्यमहाव्रत की पाँच भावनाएँ]
[१९३ लोभो ण सेवियव्वो, एवं मुत्तीए भाविप्रो सवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ।
१२४-तीसरी भावना लोभनिग्रह है । लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। (१) लोभी मनुष्य लोलुप होकर क्षेत्र—खेत-खुली भूमि और वास्तु-मकान आदि के लिए
असत्य भाषण करता है। (२) लोभी-लालची मनुष्य कीर्ति और लोभ-धनप्राप्ति के लिए असत्य भाषण करता है । (३) लोभी-लालची मनुष्य ऋद्धि-वैभव और सुख के लिए असत्य भाषण करता है । (४) लोभी-लालची भोजन के लिए, पानी (पेय) के लिए असत्य भाषण करता है। (५) लोभी-लालची मनुष्य पीठ-पीढ़ा और फलक-पाट प्राप्त करने के लिए असत्य भाषण
करता है। (६) लोभी-लालची मनुष्य शय्या और संस्तारक-छोटे बिछौने के लिए असत्य भाषण
करता है। (७) लोभी-लालची मनुष्य वस्त्र और पात्र के लिए असत्य भाषण करता है। (८) लोभी-लालची मनुष्य कम्बल और पादप्रोंछन के लिए असत्य भाषण करता है। (९) लोभी-लालची मनुष्य शिष्य और शिष्या के लिए असत्य भाषण करता है। (१०) लोभी-लालची मनुष्य इस प्रकार के सैकड़ों कारणों-प्रयोजनों से असत्य भाषण
करता है। लोभी व्यक्ति मिथ्या भाषण करता है, अर्थात् लोभ भी असत्य भाषण का एक कारण है, अतएव (सत्य के आराधक को) लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार मक्ति-निर्लोभता भावित अन्तःकरण वाला स
। साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर और सत्य तथा आर्जव धर्म से सम्पन्न होता है। चौथी भावना : निर्भयता
१२५–चउत्थं–ण भाइयव्वं, भीयं खु भया अइंति लहुयं भीमो अबितिज्जो मणूसो, भीनो भूएहिं घिप्पइ, भीमो अण्णं वि हु भेसेज्जा, भीमो तवसजमं वि हु मुएज्जा, भीमो य भरं ण णित्थरेज्जा, सप्पुरिसणिसेवियं च मग्गं भीमो ण समत्थो अणुचरित्रं, तम्हा ण भाइयव्वं । भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमाइयस्स । एवं धेज्जेण भाभिवो भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्णो ।
१२५-चौथी भावना निर्भयता-भय का अभाव है । भयभीत नहीं होना चाहिए । भीरु मनुष्य को अनेक भय शीघ्र ही जकड़ लेते हैं-भयग्रस्त बना देते हैं। भीरु मनुष्य अद्वितीय-असहाय रहता है । भयभीत मनुष्य भूत-प्रेतों द्वारा आक्रान्त कर लिया जाता है । भीरु मनुष्य (स्वयं तो डरता ही है) दूसरों को भी डरा देता है। भयभीत हुअा पुरुष निश्चय ही तप और संयम को भी छोड़ बैठता है । भीरु साधक भार का विस्तार नहीं कर सकता अर्थात् स्वीकृत कार्यभार अथवा संयमभार का भलीभांति निर्वाह नहीं कर सकता है । भीरु पुरुष सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण